जो हम दूसरों को देते हैं, वही हमें प्राप्त होता है --
जैसी हमारी भावना दूसरों के प्रति होगी, हमारे प्रति भी दूसरों की वही भावना होगी। हम मन ही मन दूसरों से घृणा करेंगे तो दूसरे भी हमारे से घृणा करेंगे। हम सब के प्रति प्रेम रखेंगे तो हमारे प्रति भी सब प्रेम ही रखेंगे। इसलिए सब के प्रति आरोग्यकारी सद्भावना रखनी चाहिए।
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लेकिन कोई आततायी हमें मारना चाहे तो निश्चित रूप से उसे मृत्यु भी हम ही देंगे। कितना भी बड़ा शत्रु क्यों न हो, उसके प्रति घृणा हमारे मन में नहीं होनी चाहिए। आतताइयों का संहार बिना अहंकार व घृणा से करेंगे तो यह हमारा कर्मयोग होगा। भगवान कहते हैं कि -- जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है, और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं है, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो किसी को मारता है और न ही (पाप से) बँधता है।
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८:१७॥"
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प्रेम मुदित मन से सब को राम राम राम कहो, क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि राममय है| सब में राम के दर्शन करो, सब को प्रसन्नता से देखो और सब के सुख की कामना मन ही मन करो| किसी को भी कष्ट में देखो तो करुणावश मन ही मन 'राम' से उसके कल्याण की कामना करो| सब को देखकर प्रसन्न होओ और किसी की निंदा मत करो| हम आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, कोई पृथक नहीं है। हम स्वयं ही हैं जो दूसरों के रूप में व्यक्त हो रहे हैं| सारी सृष्टि हमारा ही प्रतिबिम्ब है|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ जून २०२१
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