हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) परमेश्वरार्पित हो ---
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हमारी बुद्धि कहीं कुबुद्धि तो नहीं बन गई है, हमारा मन कहीं विकृत तो नहीं हो गया है, हमारा चित्त कहीं वासनाओं में तो नहीं डूब गया है, हमारा अहंकार कहीं राक्षसी तो नहीं हो गया है, इसका पता कैसे चले? पता नहीं कितनी बार इस अन्तःकरण ने हमें खड्डों में डाला है, अब किसी अंधे कुएँ में न डाल दे, इसका डर लगता है। इसे वश में करना अपने सामर्थ्य में नहीं है। जो चीज स्वयं के वश में नहीं है उसे भगवान को सौंप देना ही एकमात्र विकल्प है।
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हमारा सारा जीवन ही परमात्मा को समर्पित हो कर एक उपासना व अर्चना बन जाये। न तो कर्ताभाव हो, न कभी किसी कर्मफल की इच्छा हो, और न ही किसी कर्म में आसक्ति रहे। तभी हमारा अंतःकरण शुद्ध हो सकता है, और तभी हम पर परमात्मा की प्रसन्नता और कृपा हो सकती है। इनके अतिरिक्त और चाहिए भी क्या?
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अतःकरण का शुद्ध हो जाना -- परमेश्वर की प्रसन्नता है, अन्तःकरण की शुद्धता ही सबसे बड़ी सिद्धि है। गुरु महाराज और परमात्मा, हमारे माध्यम से, हमें निमित्तमात्र बनाकर, स्वयं अपनी साधना कर रहे हैं। सारा श्रेय और सारा फल उन्हीं को अर्पित हो। कूटस्थ में परमात्मा का निरंतर बोध रहे। सारी कठिनाइयाँ उन्ही को सौंप दो। कोई कामना न रहे। यदि साधना नहीं होती है तो अपने परिवेश को -- यानि परिस्थितियों और वातावरण को बदलो। कुसंग का त्याग करो और सत्संग करो। सबसे बड़ा सत्संग है -- चित्त में निरंतर परमात्मा का स्मरण।
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हे परमशिव, हमारे चैतन्य में सिर्फ आप का ही अस्तित्व रहे, आप से विमुखता और पृथकता कभी भी न हो। आप ही सर्वस्व हैं। "मैं" नहीं, आप ही आप रहें, यह "मैं" और "मेरापन" सदा के लिए नष्ट हो जाएँ। भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिये। यह अभीप्सा की अग्नि सदा प्रज्ज्वलित रहे।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ जून २०२१
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