परमशिव ही मेरे जीवन है, एक क्षण के लिए भी उनसे वियोग मेरी मृत्यु है ---
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मैं, मेरे गुरु, व परमशिव -- तीनों एक हैं, कहीं कोई भेद नहीं है। अज्ञान से मुझे लगता था कि मैं उन से दूर हूँ। पर गुरु महाराज ने कृपा कर के बता दिया है कि मैं उनके साथ एक हूँ। गुरु वचनों में मुझे कोई शंका नहीं है। अज्ञान से मुझे लगता था कि मैं ब्रह्म नहीं हूँ, वैसे ही जैसे कर्ण को लगता था कि मैं क्षत्रिय नहीं हूँ। जब सूर्यदेव ने उसे उपदेश दिया कि "तूँ कुन्ती जी का पुत्र क्षत्रिय है", यह ज्ञान होते ही वह क्षत्रिय हो गया। इसी प्रकार जब शिष्य गुरुमुख से सुनता है कि "तू ब्रह्म है" तो उसके सारे संदेह दूर हो जाते हैं। गुरु के आदेश से मनन और निदिध्यासन की आवश्यकता तो फिर भी पड़ती ही है।
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मेरे अस्तित्व का कारण स्वयं परमात्मा हैं। वे ही सब कुछ है। देह में आस्था होने के कारण निराशाजनक रूप से आध्यात्मिक प्रगति रुक गयी थी। आस्था को प्रेमपात्र से जोड़ते ही आनंद आने लगा है। मैं यह शरीर नहीं हूँ। जिस दिन यह शरीर शांत होगा, मैं भी एक इसका एक साक्षी रहूँगा। उस समय चेतना में सिर्फ परमात्मा ही रहेंगे, अन्य कुछ भी नहीं। मैं नित्य-मुक्त हूँ, परमात्मा तो मिले हुए ही हैं। उनके अतिरिक्त मुझे अन्य किसी की भी आवश्यकता नहीं है। वे ही निरंतर मेरी चेतना में बने रहें, और कुछ भी मुझे नहीं चाहिए। यह शरीर उनका है, जब तक वे मेरी चेतना में हैं, तभी तक यह शरीर रहे, अन्यथा उसी क्षण यह शांत हो जाये, मुझे इस से कोई मतलब नहीं है, बहुत जीर्ण-शीर्ण हो गया है। मैं नित्यमुक्त हूँ, मेरे लिए किसी भी कर्मकांड की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इस देह से मुक्त होते ही उसी क्षण से मैं एक बार तो वहीं रहूँगा जहाँ परमात्मा स्वयं और मेरे पूर्वजन्मों के गुरु हैं।
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भगवान को पाने का एकमात्र मार्ग "भक्ति" है, अन्य सब भ्रमजाल है। गीता में भगवान कहते हैं --
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः|
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्||१८:५५||"
अर्थात् (उस परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ| (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है||
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हमें जो कुछ भी जीवन में मिलता है, चाहे वह परमात्मा की कृपा ही क्यों न हो, -- स्वयं की "श्रद्धा और विश्वास" से ही मिलता है, न कि किसी अन्य माध्यम से| श्रद्धा और विश्वास हो तो तभी हमारे पर भगवान की कृपा होती है| बाकी अन्य सब बहाने मात्र हैं| उनसे कुछ नहीं मिलता| श्रद्धा, विश्वास और समर्पण ... हमारी पात्रता के मापदंड हैं| रामचरितमानस के मंगलाचरण में ही लिखा है --
"भवानी शङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ|
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्||"
जिस श्रद्धा एवं विश्वास के बिना सिद्ध पुरुष भी अपने हृदय में स्थित ईश्वर के दर्शन नही कर पाते उन श्रद्धा रूपी पार्वती जी तथा विश्वास रूपी शंकर जी को प्रणाम करता हूँ|
गीता में भगवान कहते हैं --
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः|
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति||४:३९||"
अर्थात श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष,-- ज्ञान प्राप्त करता है| ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है||
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सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ। सभी पर भगवान की कृपा हो। परमात्मा की आरोग्यकारी उपस्थिती सब के शरीर, मन और आत्मा में रहे। ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ जून २०२१
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