Thursday, 29 July 2021

इस शरीर रूपी रथ में जो सूक्ष्म आत्मा को देखता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता --

 इस शरीर रूपी रथ में जो सूक्ष्म आत्मा को देखता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता --

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एक ग्रन्थ के संदर्भ में कहीं लिखा है -- "रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते|" अर्थात् इस शरीर रूपी रथ में जो सूक्ष्म आत्मा को देखता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। यह शाश्वत सत्य है। इसका उत्तर समझने में तो बड़ा सरल है, लेकिन व्यवहार में अपनाना बड़ा कठिन है। गीता में भगवान कहते हैं --
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥८:१६॥"
अर्थात् -- हे अर्जुन ! ब्रह्म लोक तक के सब भुवन पुनरावर्ती हैं। परन्तु, हे कौन्तेय ! मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता॥
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भगवान को भी वही प्राप्त करता है जो इस शरीर रूपी रथ में सर्वव्यापी सूक्ष्म आत्मा को अनुभूत करता है, यानि देखता है। यह बुद्धि का नहीं बल्कि अनुभूति का विषय है। इसका अर्थ वही समझ सकता है जो अपना सम्पूर्ण ध्यान कूटस्थ पर केन्द्रित करके अनंत ब्रह्म में लीन हो जाता है।
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हम झूले में ठाकुर जी को झूला झुला कर उत्सव मनाते हैंं, यह तो प्रतीकात्मक है। लेकिन वास्तविक झूला तो कूटस्थ में है, जहाँ सचमुच आत्मा की अनुभूति --ज्योति, नाद व स्पंदन के रूप में होती है। तब सौ काम छोड़कर भी उस में लीन हो जाना चाहिए। यह स्वयं में एक उत्सव है। ज्योति, नाद व भगवत-स्पंदन की अनुभूति होने पर पूरा अस्तित्व आनंद से भर जाता है जैसे कोई उत्सव हो। यही ठाकुर जी को झूले में डोलाना है।
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जीवरूपी गजेन्द्र और मोहरूपी ग्राह (मगर मच्छ) का युद्ध शाश्वत है। यह सृष्टि के आदिकाल से ही हम सब के भीतर चल रहा है और सृष्टि के अंत यानि तब तक चलता रहेगा, जब तक हमारी करुण प्रार्थना सुनकर भगवान हमें इस मोह-रूपी ग्राह से मुक्त नहीं कर देते। ग्राह की मुक्ति पहले होगी, तब उसके बाद ही हम मुक्त और विजयी होंगे।
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तंत्र शास्त्रों में इसे दूसरे रूप में समझाया गया है --
"पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले।
उत्थाय च पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते॥" (तन्त्रराज तन्त्र).
अर्थात् पीये, और बार बार पीये जब तक भूमि पर न गिरे| उठ कर जो फिर से पीता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता|
यह एक बहुत ही गहरा ज्ञान है जिसे एक रूपक के माध्यम से समझाया गया है|
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आचार्य शंकर ने "सौंदर्य लहरी" के आरम्भ में ही भूमि-तत्त्व के मूलाधारस्थ कुण्डलिनी के सहस्रार में उठ कर परमशिव के साथ विहार करने का वर्णन किया है| विहार के बाद कुण्डलिनी नीचे भूमि तत्त्व के मूलाधार में वापस आती है| बार बार उसे सहस्रार तक लाकर परमेश्वर से मिलन कराने पर पुनर्जन्म नहीं होता|
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आज निर्जला एकादशी के दिन ये भाव आए और मैं उन्हें लिपिबद्ध कर पाया, मैं धन्य हुआ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे !!
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमो नारायण !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
आप सब महापुरुषों को नमन !!
कृपा शंकर
२१ जून २०२१

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