Wednesday, 9 June 2021

यज्ञानां जपयज्ञोsस्मि ---

भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को "यज्ञानां जपयज्ञोsस्मि" अर्थात् यज्ञों में जप-यज्ञ बताया है। अग्नि पुराण के अनुसार "जप" का अर्थ है --
"जकारो जन्म विच्छेदः पकारः पाप नाशकः।
तस्याज्जप इति प्रोक्तो जन्म पाप विनाशकः॥"
‘ज’ अर्थात् जन्म मरण से छुटकारा, ‘प’ अर्थात् पापों का नाश। इन दोनों प्रयोजनों को पूरा कराने वाली साधना को ‘जप’ कहते हैं।
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कोई भी साधना जितने सूक्ष्म स्तर पर होती है वह उतनी ही फलदायी होती है। वाणी के चार क्रम हैं -- परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी। जिह्वा से होने वाले शब्दोच्चारण को बैखरी वाणी कहते हैं। उससे पूर्व मन में जो भाव आते हैं वह मध्यमा वाणी है। मन में भाव उत्पन्न हों, उससे पूर्व वे मानस पटल पर दिखाई भी दें वह पश्यन्ति वाणी है। और उससे भी परे जहाँ से विचार जन्म लेते हैं वह परा वाणी है। परा में प्रवेश कर के ही हम समष्टि का वास्तविक कल्याण कर सकते हैं। कूटस्थ में परमात्मा का निरंतर ध्यान करें, वे सब समझा देंगे.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१ जून २०२१

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