मेरी उपासना, और मेरा स्वधर्म ---
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जब भी परमात्मा के प्रति हृदय में प्रेम उमड़ता है, आँखें स्वतः ही बंद हो जाती हैं, और दृष्टि कूटस्थ में चली जाती है। कूटस्थ -- एक अनंत विस्तारमय चेतना है, जिसमें सारी सृष्टि समाहित है -- सारी आकाश गंगाएँ, सारे चाँद, तारे, नक्षत्र और जो भी कुछ भी सृष्ट व असृष्ट है, वह सब उस के भीतर है, बाहर कुछ भी नहीं। उसका केंद्र सर्वत्र है, परिधि कहीं भी नहीं, सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश है, कहीं कोई अंधकार नहीं। सिर्फ प्रेम ही प्रेम, और आनंद ही आनंद है। वह अनंत विस्तार और उस से परे जो कुछ भी है, वे ही मेरे परमप्रिय परमात्मा हैं, वे ही मेरे परमेष्ठि गुरु हैं, और वह ही मैं हूँ, यह नश्वर देह नहीं, जो उनका एक उपकरण मात्र है। यह सृष्टि चलायमान है जिसमें से एक अद्भुत मधुर ध्वनि निःसृत हो रही है। वह ध्वनि, प्रकाश, प्रेम और आनंद -- मैं ही हूँ। यही मेरी उपासना, यही मेरा स्वधर्म और यही मेरा अस्तित्व है| ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
२ जून २०२०
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