Wednesday, 9 June 2021

भक्ति का स्थान सर्वोपरि है, अन्य सब गौण हैं ---

 भक्ति का स्थान सर्वोपरि है, अन्य सब गौण हैं ---

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अपनी अति-अल्प और अति-सीमित बुद्धि द्वारा मैं जो कुछ भी लिखता हूँ उसका एकमात्र उद्देश्य स्वयं के हृदय में छिपी भक्ति को जागृत करना है, और कुछ भी नहीं। यह मेरा स्वयं के साथ एक सत्संग है, जिस में मुझे खूब आनंद मिलता है। योग आदि अन्य सारी साधनायें बाद में आती हैं, सर्वोपरि स्थान भक्ति का है।
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जब भी भक्तिभाव प्रबल होता है तब एकमात्र छवि भगवान श्रीकृष्ण की ही आती है, चाहे वह उनकी त्रिभंग मुद्रा में हो, या पद्मासनस्थ ध्यान मुद्रा में। उनका ध्यान करते करते मैं स्वयं को भूल जाता हूँ और सिर्फ उनकी छवि ही मेरे समक्ष रहती है। बस यही मेरी साधना है, बाकी सब बाद की बातें हैं। शेष जीवन उनके ध्यान में व्यतीत हो जाए, इस के अतिरिक्त अन्य कोई अभिलाषा नहीं है। उनसे पृथकता का बोध, और सम्पूर्ण अस्तित्व उनको समर्पित है। यही मेरी साधना और यज्ञ है।
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(आज के लिए ही गीता के कुछ संकलित श्लोक) भगवान कहते हैं ---
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"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥९::२७॥"
अर्थात् -- हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो॥
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"शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥९:२८॥"
अर्थात् -- इस प्रकार तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे; और संन्यासयोग से युक्तचित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे॥
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"समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥९:२९॥"
अर्थात् -- मैं समस्त भूतों में सम हूँ; न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय; परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ॥
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"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता॥
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
अर्थात् -- (तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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"यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥१०:३॥"
अर्थात् -- जो मुझे अजन्मा, अनादि और लोकों के महान् ईश्वर के रूप में जानता है, मर्त्य मनुष्यों में ऐसा संमोहरहित (ज्ञानी) पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाता है॥
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"तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥१०:११॥"
अर्थात् उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए मैं उनके अन्त:करण में स्थित होकर, अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय ज्ञान के दीपक द्वारा नष्ट करता हूँ॥
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाया॥" आप सब महान निजातमगण को नमन !!
कृपा शंकर
१ मई २०२१
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पुनश्च: --- "ब्रह्मस्वरूप प्रणव" का नाद -- अनंत ज्योतिर्मय होता है। उस के श्रवण से अनंताकाश का बोध होता हैं। वह अनंताकाश -- भगवान श्रीकृष्ण का परम पद है। वे उस अनंताकाश से भी परे हैं। उन्हीं में स्वयं का समर्पण निरंतर होता रहे।

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