आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में जो अपेक्षा हम दूसरों से करते हैं, वह सर्वप्रथम स्वयं के जीवन में चरितार्थ करें। दूसरा अन्य कोई भी नहीं है।
मनुष्य देह, बुद्धि, भक्ति व सत्संग लाभ पा कर भी परमात्मा का चिंतन-मनन और ध्यान न करना -- प्रमाद यानि मृत्यु है। भगवान ने २४ घंटे हमें दिये हैं, उसका दसवाँ भाग यानि कम से कम ढाई से तीन घंटे हमें भगवान की साधना करनी चाहिये।
किसी भी आचार्य, साधू, संत, महात्मा का स्वयं का आचरण कैसा है, और उन के अनुयायी आध्यात्मिक रूप से कितने उन्नत हैं? -- यही मापदंड है उनकी महत्ता का। किसी के पास जाते ही स्वतः ही भक्ति जागृत हो जाये, शांति मिले, व सुषुम्ना नाड़ी चैतन्य हो जाये, तो वह व्यक्ति निश्चित रूप से एक महात्मा है। जिसमें लोभ और अहंकार भरा हुआ है, वह साधु नहीं हो सकता।
साधू-संत -- पवित्रात्मा, परोपकारी, सदाचारी, त्यागी, बुद्धिमान, समभावी, भयमुक्त, विद्वान और ईश्वरभक्त होते हैं। साधू-संतों की तपस्या से ही समाज में कुछ भलाई है। साधु-संत जहाँ भी रहते हैं, वह भूमि पवित्र हो जाती है। उनका सम्मान और सेवा करना हमारा धर्म है।
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