Tuesday, 5 May 2020

भगवान को निश्चित रूप से पाने का सबसे सरल व लघुत्तम (shortcut) मार्ग :----

भगवान को निश्चित रूप से पाने का सबसे सरल व लघुत्तम (shortcut) मार्ग :----
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परमात्मा की अनंतता और सर्वव्यापकता का निरंतर सचेतन अभ्यास बहुत बड़ी साधना है| भगवान कोई ऊपर से उतर कर आने वाली चीज नहीं हैं| वे निरंतर हमारे चैतन्य में हैं| वे यहीं है, इसी समय हैं और कभी हम से दूर हो ही नहीं सकते| सतत रूप से उनका स्मरण तो करना ही होगा| भगवान कहते हैं ....
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः| तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः||१८:१४||
अनन्य चित्त वाला योगी सर्वदा निरन्तर प्रतिदिन मुझ परमेश्वरका स्मरण किया करता है| (छः महीने या एक वर्ष ही नहीं, जीवनपर्यन्त जो निरन्तर मेरा स्मरण करता है) हे पार्थ उस नित्यसमाधिस्थ योगीके लिये मैं सुलभ हूँ|
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"मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय| निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः||१२:८||"
तुम अपने मन और बुद्धि को मुझमें ही स्थिर करो, तदुपरान्त तुम मुझमें ही निवास करोगे, इसमें कोई संशय नहीं है||
"अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्| अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय||१२:९||"
हे धनंजय ! यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में समर्थ नहीं हो, तो अभ्यासयोग के द्वारा तुम मुझे प्राप्त करने की इच्छा (अर्थात् प्रयत्न) करो||
"अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव| मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि||१२:१०||"
यदि तुम अभ्यास में भी असमर्थ हो तो मत्कर्म परायण बनो; इस प्रकार मेरे लिए कर्मों को करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त करोगे||
"अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः| सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्||१२:११||"
"श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते| ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्||१२:१२||"
और यदि इसको भी करने के लिए तुम असमर्थ हो, तो आत्मसंयम से युक्त होकर मेरी प्राप्ति रूप योग का आश्रय लेकर, तुम समस्त कर्मों के फल का त्याग करो||
अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है; ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से भी श्रेष्ठ कर्मफल त्याग है; त्याग से तत्काल ही शान्ति मिलती है||
"अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च| निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी||१२:१३||"
भूतमात्र के प्रति जो द्वेषरहित है तथा सबका मित्र तथा करुणावान् है; जो ममता और अहंकार से रहित, सुख और दु:ख में सम और क्षमावान् है||
"सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः||१२:१४||"
जो संयतात्मा, दृढ़निश्चयी योगी सदा सन्तुष्ट है, जो अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पण किये हुए है, जो ऐसा मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है||
"यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः| हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः||१२:१५||"
जिससे कोई लोक (अर्थात् जीव, व्यक्ति) उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी व्यक्ति से उद्वेग अनुभव नहीं करता तथा जो हर्ष, अमर्ष (असहिष्णुता) भय और उद्वेगों से मुक्त है,वह भक्त मुझे प्रिय है||
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सबसे अंत में यह सदा याद रखें .....
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम||१८:७८||"
जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है||
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निरंतर हृदय में उन की उपस्थिति का आभास और अपने सभी कर्मों व कर्मफलों का उन्हें समर्पण ...... उन्हें पाने का सब से आसान Short Cut है|
ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
कृपा शंकर
३ मार्च २०२०

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