कूटस्थ चैतन्य .....
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"कूटस्थ" शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में किया है| "कूटस्थ" को अविनाशी 'परम अव्यक्त' भी कह सकते हैं| वह जो सर्वत्र है, जिसने सर्वस्व का निर्माण किया है, पर कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं है, वह "कूटस्थ" है| उसकी चेतना "कूटस्थ चैतन्य" है| एक लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर "कूटस्थ" का नहीं| योग साधक, ध्यान में दिखाई देने वाले सर्वव्यापक विराट अनंत ज्योतिर्मय ब्रह्म और अनाहत नाद को "कूटस्थ" कहते हैं| जब ज्योतिर्मय चेतना सर्वव्यापक हो जाती है वह "कूटस्थ चैतन्य" कहलाती है| "कूटस्थ चैतन्य" में हम सदा परमात्मा के साथ हैं|
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शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीपतम लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) अजपा-जप करते हुए साथ साथ प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करते रहें| विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| एक लघुत्तम जीवाणु से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही "कूटस्थ" है, और इसकी चेतना ही "कूटस्थ चैतन्य" है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से है|
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आज्ञाचक्र योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं| आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होते हैं, वह स्थान कूटस्थ बिंदु है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष के ऊपर खोपड़ी के मध्य में पीछे की ओर है| यही जीवात्मा का निवास है|
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यदि प्रभु के प्रति परमप्रेम, श्रद्धा-विश्वास और निष्ठा होगी तब निश्चित रूप से मार्गदर्शन भी प्राप्त होगा, सहायता भी मिलेगी और रक्षा भी होगी| आवश्यकता है एक गहनतम अभीप्सा और परमप्रेम की|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१३ जुलाई २०१९
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"कूटस्थ" शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में किया है| "कूटस्थ" को अविनाशी 'परम अव्यक्त' भी कह सकते हैं| वह जो सर्वत्र है, जिसने सर्वस्व का निर्माण किया है, पर कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं है, वह "कूटस्थ" है| उसकी चेतना "कूटस्थ चैतन्य" है| एक लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर "कूटस्थ" का नहीं| योग साधक, ध्यान में दिखाई देने वाले सर्वव्यापक विराट अनंत ज्योतिर्मय ब्रह्म और अनाहत नाद को "कूटस्थ" कहते हैं| जब ज्योतिर्मय चेतना सर्वव्यापक हो जाती है वह "कूटस्थ चैतन्य" कहलाती है| "कूटस्थ चैतन्य" में हम सदा परमात्मा के साथ हैं|
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शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीपतम लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) अजपा-जप करते हुए साथ साथ प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करते रहें| विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| एक लघुत्तम जीवाणु से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही "कूटस्थ" है, और इसकी चेतना ही "कूटस्थ चैतन्य" है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से है|
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आज्ञाचक्र योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं| आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होते हैं, वह स्थान कूटस्थ बिंदु है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष के ऊपर खोपड़ी के मध्य में पीछे की ओर है| यही जीवात्मा का निवास है|
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यदि प्रभु के प्रति परमप्रेम, श्रद्धा-विश्वास और निष्ठा होगी तब निश्चित रूप से मार्गदर्शन भी प्राप्त होगा, सहायता भी मिलेगी और रक्षा भी होगी| आवश्यकता है एक गहनतम अभीप्सा और परमप्रेम की|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१३ जुलाई २०१९
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