श्रमण परम्परा और ब्राह्मण (वैदिक) परम्परा .....
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भगवान महावीर श्रमण परम्परा के चौबीसवें और अंतिम तीर्थंकर थे| श्रमण परम्परा और ब्राह्मण परम्परा दोनों ही अति प्राचीन काल से चली आ रही हैं| इनमें अंतर यह है कि श्रमण परम्परा नास्तिक है और ब्राह्मण परम्परा आस्तिक| जो श्रुति (वेदों) में आस्था रखता है व श्रुति (वेदों) को अंतिम प्रमाण मानता है, वह आस्तिक है, और जो श्रुतियों में आस्था नहीं रखता वह नास्तिक है| श्रमण परम्परा श्रुति (वेदों) को अपौरुषेय नहीं मानती अतः नास्तिक परम्परा है|
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पर इनमें एक समानता भी है| ये दोनों परम्पराएँ आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म और कर्मफलों के सिद्धांत को मानती हैं|
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ब्राह्मण परम्परा में ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को ही मोक्ष का आधार मानता है और वेदवाक्य को ही ब्रह्म-वाक्य मानता है|
श्रमण परम्परा में श्रमण वह है जो निज श्रम द्वारा मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को मानता है और जिसके लिए जीवन में ईश्वर की नहीं बल्कि श्रम की आवश्यकता है| श्रमण परम्परा ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानती|
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श्रमण परम्परा का आधार .... श्रमण, समन, शमन .... इन तीन शब्दों पर है| 'श्रमण' शब्द 'श्रमः' धातु से बना है, जिसका अर्थ है 'परिश्रम करना'| श्रमण शब्द का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद् में 'श्रमणोऽश्रमणस' के रूप में हुआ है| यह शब्द इस बात को प्रकट करता है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही परिश्रम द्वारा कर सकता है| सुख–दुःख, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है| 'समन' का अर्थ है, समताभाव, अर्थात् सभी को आत्मवत् समझना, सभी के प्रति समभाव रखना| जो बात अपने को बुरी लगती है, वह दूसरे के लिए भी बुरी है| ‘शमन' का अर्थ है अपनी वृत्तियों को शान्त रखना, उनका निरोध करना|
जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को संयमित रखता है वह महाश्रमण है| इस प्रकार श्रमण परम्परा का मूल आधार श्रम, सम, शम इन तीन तत्त्वों पर आश्रित है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ गुरुभ्यो नमः !
कृपा शंकर
९ जुलाई २०१९
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भगवान महावीर श्रमण परम्परा के चौबीसवें और अंतिम तीर्थंकर थे| श्रमण परम्परा और ब्राह्मण परम्परा दोनों ही अति प्राचीन काल से चली आ रही हैं| इनमें अंतर यह है कि श्रमण परम्परा नास्तिक है और ब्राह्मण परम्परा आस्तिक| जो श्रुति (वेदों) में आस्था रखता है व श्रुति (वेदों) को अंतिम प्रमाण मानता है, वह आस्तिक है, और जो श्रुतियों में आस्था नहीं रखता वह नास्तिक है| श्रमण परम्परा श्रुति (वेदों) को अपौरुषेय नहीं मानती अतः नास्तिक परम्परा है|
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पर इनमें एक समानता भी है| ये दोनों परम्पराएँ आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म और कर्मफलों के सिद्धांत को मानती हैं|
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ब्राह्मण परम्परा में ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को ही मोक्ष का आधार मानता है और वेदवाक्य को ही ब्रह्म-वाक्य मानता है|
श्रमण परम्परा में श्रमण वह है जो निज श्रम द्वारा मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को मानता है और जिसके लिए जीवन में ईश्वर की नहीं बल्कि श्रम की आवश्यकता है| श्रमण परम्परा ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानती|
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श्रमण परम्परा का आधार .... श्रमण, समन, शमन .... इन तीन शब्दों पर है| 'श्रमण' शब्द 'श्रमः' धातु से बना है, जिसका अर्थ है 'परिश्रम करना'| श्रमण शब्द का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद् में 'श्रमणोऽश्रमणस' के रूप में हुआ है| यह शब्द इस बात को प्रकट करता है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही परिश्रम द्वारा कर सकता है| सुख–दुःख, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है| 'समन' का अर्थ है, समताभाव, अर्थात् सभी को आत्मवत् समझना, सभी के प्रति समभाव रखना| जो बात अपने को बुरी लगती है, वह दूसरे के लिए भी बुरी है| ‘शमन' का अर्थ है अपनी वृत्तियों को शान्त रखना, उनका निरोध करना|
जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को संयमित रखता है वह महाश्रमण है| इस प्रकार श्रमण परम्परा का मूल आधार श्रम, सम, शम इन तीन तत्त्वों पर आश्रित है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ गुरुभ्यो नमः !
कृपा शंकर
९ जुलाई २०१९
(इस विषय पर आगे और लेखन पाठकों की प्रतिक्रियाओं पर निर्भर है| आगे के
विषय अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहआदि हो सकते हैं|
स्यादवाद और वेदांत पर भी विचार हो सकता है| साधनाओं पर भी लिखा जा सकता
है, पर यह सब परिस्थितियों पर निर्भर है क्योंकि मेरा तो आजकल सर्वप्रिय
विषय ही भक्ति है, भक्ति के अलावा अन्य किसी विषय पर लिखने की इच्छा ही
नहीं होती|)
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