Sunday, 14 July 2019

अपरिग्रह .....

अपरिग्रह .....
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अधिकार-मुक्ति, या लोभ-मुक्ति की अवधारणा को हम अपरिग्रह कह सकते हैं| जितना कम से कम आवश्यक है, बस उतने का ही संग्रह, अन्य किसी का भी संग्रह नहीं, अर्थात् कोई भी वस्तु संचित ना करना .... अपरिग्रह कहलाता है| यह योग-दर्शन के पांच यमों में आता है और श्रमण परम्परा में महावीर स्वामी के अनुसार अहिंसा और अपरिग्रह जीवन के आधार हैं| अहिंसा के पश्चात् अपरिग्रह जैन धर्म में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण गुण है| सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ये पांच यम हैं| ये ही पांच महाव्रत हैं, जितना अधिक हम इनका पालन करते हैं, उतना ही अधिक इनका प्रभाव होने लगता है| अपरिग्रह एक महान व्रत है, जिसका आज के युग में जनकल्याण की दृष्टि से और भी अधिक महत्त्व है| क्योंकि वर्तमान युग में परिग्रह लालसा बहुत बढ़ रही है| परिग्रह पर महावीर स्वामी कहते हैं जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसका दुःख से कभी भी छुटकारा नहीं हो सकता| ज्ञानी लोग कपड़ा, पात्र आदि किसी भी चीज में ममता नहीं रखते, यहाँ तक कि शरीर में भी नहीं|
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अध्यात्म के साधकों के लिए 'अपरिग्रह' महाव्रत के रूप में रखा गया है। महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्रों में उसे अष्टांग-योग-साधना के अंतर्गत यम के पांच स्तम्भों में से एक माना है| अपरिग्रह का अर्थ होता है परिग्रह का अभाव और परिग्रह का तात्पर्य है-लेना, स्वीकार करना| इस प्रकार अपरिग्रह वह गुण है, जो किसी से भेंट स्वीकार करने का निषेध करता है|

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