जहाँ कोई अन्धकार नहीं है, जो अन्धकार और प्रकाश से परे है, भगवान के उसी विराट रूप का हम ध्यान करें .....
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गीता के ग्यारहवें अध्याय विश्वरूपदर्शनयोग को समझने के पश्चात परमात्मा के किस रूप का ध्यान करें, इस में कोई संदेह ही नहीं होना चाहिए| फिर भी एक बार किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ श्रोत्रिय आचार्य से मार्गदर्शन ले लेना चाहिए| ध्यान साधकों को समय समय पर गीता के इस अध्याय का स्वाध्याय करना चाहिए| वैसे भी गीता के आरम्भ से अंत तक पांच श्लोक तो नित्य अर्थ सहित पढने चाहिएँ| सारे संदेहों का निवारण गीता ही कर सकती है|
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गीता के ग्यारहवें अध्याय विश्वरूपदर्शनयोग को समझने के पश्चात परमात्मा के किस रूप का ध्यान करें, इस में कोई संदेह ही नहीं होना चाहिए| फिर भी एक बार किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ श्रोत्रिय आचार्य से मार्गदर्शन ले लेना चाहिए| ध्यान साधकों को समय समय पर गीता के इस अध्याय का स्वाध्याय करना चाहिए| वैसे भी गीता के आरम्भ से अंत तक पांच श्लोक तो नित्य अर्थ सहित पढने चाहिएँ| सारे संदेहों का निवारण गीता ही कर सकती है|
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥ (११/१२)
यदि आकाश में एक हजार सूर्य एक साथ उदय हो तो उनसे उत्पन्न होने वाला वह प्रकाश भी उस सर्वव्यापी परमेश्वर के प्रकाश की शायद ही समानता कर सके। (११/१२)
परमात्मा का वह प्रकाशरूप ही ज्योतिर्मय ब्रह्म है, वही परमशिव है, वही परमेश्वर है| उसी का हम ध्यान करें | ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
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पुनश्चः -----
अनन्य भक्ति क्या है? गीता के इसी अध्याय के ५४ वें श्लोक में भगवान अन्य भक्ति की बात कह रहे हैं|
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥ (११/५४)
अनन्य भक्ति क्या है इस पर कई लोग विवाद करते हैं| इस का जो अद्वैतवादी अर्थ मैं समझ पाया हूँ वह यही है ..... "जहाँ अन्य कोई नहीं है" | भगवान के गहन ध्यान से यह स्पष्ट हो जाता है|
सार यह है की हम शरणागत हों, भक्ति में स्थित हों, कामनाओं और राग-द्वेष से मुक्त हों, और समस्त प्राणियों से मैत्री भाव रखें| यह परमात्मा के ध्यान द्वारा ही संभव है|
ॐ ॐ ॐ !!
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥ (११/१२)
यदि आकाश में एक हजार सूर्य एक साथ उदय हो तो उनसे उत्पन्न होने वाला वह प्रकाश भी उस सर्वव्यापी परमेश्वर के प्रकाश की शायद ही समानता कर सके। (११/१२)
परमात्मा का वह प्रकाशरूप ही ज्योतिर्मय ब्रह्म है, वही परमशिव है, वही परमेश्वर है| उसी का हम ध्यान करें | ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
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पुनश्चः -----
अनन्य भक्ति क्या है? गीता के इसी अध्याय के ५४ वें श्लोक में भगवान अन्य भक्ति की बात कह रहे हैं|
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥ (११/५४)
अनन्य भक्ति क्या है इस पर कई लोग विवाद करते हैं| इस का जो अद्वैतवादी अर्थ मैं समझ पाया हूँ वह यही है ..... "जहाँ अन्य कोई नहीं है" | भगवान के गहन ध्यान से यह स्पष्ट हो जाता है|
सार यह है की हम शरणागत हों, भक्ति में स्थित हों, कामनाओं और राग-द्वेष से मुक्त हों, और समस्त प्राणियों से मैत्री भाव रखें| यह परमात्मा के ध्यान द्वारा ही संभव है|
ॐ ॐ ॐ !!
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