Sunday, 10 November 2024

मेरा अस्तित्व परमात्मा के मन का एक स्वप्न मात्र है, उससे अधिक कुछ भी नहीं ---

महाभारत में नहुषपुत्र ययाति कि कथा आती है जो कुरुवंश में कौरव-पांडवों के पूर्वज थे| उस समय सृष्टि में वे सबसे बड़े तपस्वी थे| सारे देवता भी उनके समक्ष नतमस्तक रहते थे| पर एक दिन उन्हें अपनी साधना का अभिमान हो गया जिससे उनके सारे पुण्य क्षीण हो गए और देवताओं ने उन्हें स्वर्ग से नीचे गिरा दिया|

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ऐसी ही महाराजा इन्द्रद्युम्न नाम के एक राजा की कथा है| उन्होंने अट्ठानवे अश्वमेध यज्ञ पूर्ण कर इंद्र के समकक्ष स्थान प्राप्त कर लिया था| कुछ कुछ अहंकार का अवशेष था जिससे मुक्ति दिलाने के लिए इन्द्रादि देवताओं ने उनसे कहा कि अब तुम्हें यहाँ से जाना पड़ेगा क्योंकि यहाँ पुण्य ही पर्याप्त नहीं अपितु कीर्ति की भी आवश्यकता होती है। यदि कोई तुम्हें पहचानता हो, तो यहाँ रह सकते हो, अन्यथा तम्हे बापस जाना होगा|
मुझे कौन नहीं जानेगा इस अहंकार के साथ महाराजा इन्द्रद्युम्न पृथ्वी पर बापस आये| पृथ्वी पर सैंकड़ों वर्ष व्यतीत हो चुके थे| किसी को उसका नाम भी नहीं मालूम था। उन्होंने लोगों को बहुत याद दिलाया कि मैंने अट्ठानबे अश्वमेध यज्ञ किये थे| लोगों ने कहा कि जो मर गया सो मर गया, उसे याद क्यों करें| इन्द्रद्युम्न बड़े दुःखी हुए, उनका विचार था कि मेरी बड़ी ख्याति है, किन्तु आज उन्हें कोई नहीं जानता था| वे बड़े शोकग्रस्त थे कि दैवयोग से अचानक वहाँ महर्षि लोमश पधारे| लोमश ऋषि ने उनसे कहा कि मेरी बड़ी लम्बी आयु है। मैं तुम्हारे यहाँ अश्वमेध यज्ञ में भोजन करने आया था| यद्यपि उस समय तुमने मेरा ध्यान नहीं रखा किन्तु मुझे तुम्हारा ध्यान है। इन्द्रद्युम्न को उसी समय वैराग्य हो गया और महर्षि लोमश कि कृपा से उन्हें ज्ञान हो गया और उनका अहंकार जनित मोह नष्ट हो गया|
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एक सच्चे साधक को अपनी रक्षा के लिए सदैव अमानित्व की भावना रखने की आवश्यकता है।
भगवान् श्री कृष्ण ने भी अमानित्व पर कहा है ------
"अमानित्वम् अदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् |
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ||
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च |
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ||
असक्तिरनभिष्वंगः पुत्रदारगृहादिषु |
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ||"
(श्रीभगवद्गीता १३ – ७ . ८ . ९ )
सारे साधन जो भगवान् ने बताए हैं उनमें सर्वप्रथम साधन "अनामिता" है| जिसमें अनामिता नहीं रहती उसके सारे आगे के साधन व्यर्थ हो जाते हैं
अपनी पढाई-लिखाई, धन-सम्पत्ति और पद का अभिमान, यहाँ तक कि पुण्य का अभिमान भी पतन का सबसे बड़ा कारण है|
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दूसरों से सम्मान की अपेक्षा सबसे बड़ा धोखा है| इससे बच कर रहो|
ॐ श्री गुरुभ्यो नमः|| ॐ शिव || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१ नवंबर २०२४

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