हम स्वयं परमात्मा के पुष्प हैं ---
बाहर के सौन्दर्य से हम प्रभावित हो जाते हैं, पर उससे भी कई गुणा अधिक सौन्दर्य तो हमारे स्वयं के भीतर है जिसे हम नहीं जानते| ब्रह्ममुहूर्त में मेरुदंड उन्नत रखते हुए पूर्वाभिमुख होकर किसी पवित्र स्थान में एक ऊनी कम्बल के आसन पर बैठिये| दृष्टिपथ भ्रूमध्य में हो और चेतना उत्तरा सुषुम्ना में| अब उस चैतन्य को समस्त ब्रह्मांड में विस्तृत कर दें| यह अनंत विस्तार और परम चैतन्य और कोई नहीं हम स्वयं हैं| पूर्ण प्रेम से अपने इस आत्मरूप का ध्यान कीजिये| वहाँ एक ध्वनि गूँज रही है, उस ध्वनि को गहनतम ध्यान से सुनते रहिये| पूरी सृष्टि सांस ले रही है जिसके प्रति सजग रहें| हमारा यह रूप भगवान का ही रूप है| इसका आनंद लेते रहें| परमात्मा की निरंतर उपस्थिति से हमारे हृदय पुष्प की पंखुड़ियाँ जब खिलेंगी तो उनकी भक्ति रूपी महक सभी के हृदयों में फ़ैल जायेगी|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ अक्तूबर २0२४
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