भगवान में ही स्थित हो जायें .....
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मुमुक्षुत्व और फलार्थित्व .... दोनों साथ साथ नहीं हो सकते| गीता में भगवान कहते हैं ....
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्| मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः||४:११||"
अर्थात् जो मुझे जैसे भजते हैं मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ| हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं||
जब मुमुक्षुत्व जागृत होता है तब शनैः शनैः अन्य सब कामनाएँ नष्ट होने लगती हैं, किसी भी तरह के कर्मफल की कामना नहीं रहती क्योंकि कर्ताभाव समाप्त हो जाता है| जहाँ राग-द्वेष और अहंकार है वहाँ आत्मभाव नहीं हो सकता| भगवान कहते हैं कि जो भक्त जिस प्रयोजन से यानी जिस भी कर्मफल की प्राप्ति के लिए मुझे भजते हैं, मैं भी उन्हें उसी प्रकार भजता हूँ, यानी उनकी कामनानुसार उन्हें फल देकर उन पर अनुग्रह करता हूँ| जो भगवान के लिए व्याकुल हैं, भगवान भी उन के लिए व्याकुल हैं|
.
भगवान कहते हैं .....
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया| आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्||६:२५||"
अर्थात् शनै शनै धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे| मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे||
शनैः शनैः धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को आत्मा में स्थित करके अर्थात् यह सब कुछ आत्मा ही है उससे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, इस प्रकार मन को आत्मामें अचल करके अन्य किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे| यह एक बहुत बड़ी साधना है जो भगवान के अनुग्रह से ही संभव है|
.
भगवान् ने कहा है ....
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"
अर्थात् सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ| मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो||
भगवद्गीता के इस श्लोक की व्याख्या में सभी अनुवादकों, भाष्यकारों, समीक्षकों और टीकाकारों ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता लगा दी है| इस महान् श्लोक के माध्यम से प्रत्येक दार्शनिक ने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है| सार की बात यही है कि .... मुझ परमेश्वर से अन्य कुछ है ही नहीं ऐसा निश्चय कर| तुझ इस प्रकार निश्चय वाले को मैं अपना स्वरूप प्रत्यक्ष कराके, समस्त धर्माधर्मबन्धनरूप पापोंसे मुक्त कर दूँगा| इसलिये तू शोक न कर अर्थात् चिन्ता मत कर|
.
हम सब तरह की चिंताओं को त्याग कर भगवान में ही स्थित हो जाएँ| यही गुरु महाराज की शिक्षाओं का सार है| हे गुरु महाराज, आप ही इस नौका के कर्णधार हैं, सब कुछ आप को समर्पित है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ मई २०१९
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मुमुक्षुत्व और फलार्थित्व .... दोनों साथ साथ नहीं हो सकते| गीता में भगवान कहते हैं ....
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्| मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः||४:११||"
अर्थात् जो मुझे जैसे भजते हैं मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ| हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं||
जब मुमुक्षुत्व जागृत होता है तब शनैः शनैः अन्य सब कामनाएँ नष्ट होने लगती हैं, किसी भी तरह के कर्मफल की कामना नहीं रहती क्योंकि कर्ताभाव समाप्त हो जाता है| जहाँ राग-द्वेष और अहंकार है वहाँ आत्मभाव नहीं हो सकता| भगवान कहते हैं कि जो भक्त जिस प्रयोजन से यानी जिस भी कर्मफल की प्राप्ति के लिए मुझे भजते हैं, मैं भी उन्हें उसी प्रकार भजता हूँ, यानी उनकी कामनानुसार उन्हें फल देकर उन पर अनुग्रह करता हूँ| जो भगवान के लिए व्याकुल हैं, भगवान भी उन के लिए व्याकुल हैं|
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भगवान कहते हैं .....
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया| आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्||६:२५||"
अर्थात् शनै शनै धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे| मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे||
शनैः शनैः धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को आत्मा में स्थित करके अर्थात् यह सब कुछ आत्मा ही है उससे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, इस प्रकार मन को आत्मामें अचल करके अन्य किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे| यह एक बहुत बड़ी साधना है जो भगवान के अनुग्रह से ही संभव है|
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भगवान् ने कहा है ....
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"
अर्थात् सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ| मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो||
भगवद्गीता के इस श्लोक की व्याख्या में सभी अनुवादकों, भाष्यकारों, समीक्षकों और टीकाकारों ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता लगा दी है| इस महान् श्लोक के माध्यम से प्रत्येक दार्शनिक ने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है| सार की बात यही है कि .... मुझ परमेश्वर से अन्य कुछ है ही नहीं ऐसा निश्चय कर| तुझ इस प्रकार निश्चय वाले को मैं अपना स्वरूप प्रत्यक्ष कराके, समस्त धर्माधर्मबन्धनरूप पापोंसे मुक्त कर दूँगा| इसलिये तू शोक न कर अर्थात् चिन्ता मत कर|
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हम सब तरह की चिंताओं को त्याग कर भगवान में ही स्थित हो जाएँ| यही गुरु महाराज की शिक्षाओं का सार है| हे गुरु महाराज, आप ही इस नौका के कर्णधार हैं, सब कुछ आप को समर्पित है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ मई २०१९
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