भगवान सर्वत्र व्याप्त हैं .....
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भगवान सर्वत्र व्याप्त हैं, न तो कोई उनका प्रिय है और न कोई अप्रिय| परन्तु जो उन को प्रेम से भजते हैं, भगवान उनमें हैं, और वे भी भगवान में हैं|
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः| ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्||९:२९||
अर्थात् मैं समस्त भूतों में सम हूँ न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ||
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भगवान सभी प्राणियों के प्रति समान हैं| उनका न तो कोई द्वेष्य है और न कोई प्रिय है| वे अग्नि के समान है .... जैसे अग्नि अपने से दूर रहने वाले प्राणियों के शीत का निवारण नहीं करता, पास आने वालों का ही करता है, वैसे ही वे भक्तों पर अनुग्रह करते हैं|
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भगवान ने कहा है .....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
अर्थात् जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता||
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भगवान सर्वत्र व्याप्त हैं, न तो कोई उनका प्रिय है और न कोई अप्रिय| परन्तु जो उन को प्रेम से भजते हैं, भगवान उनमें हैं, और वे भी भगवान में हैं|
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः| ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्||९:२९||
अर्थात् मैं समस्त भूतों में सम हूँ न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ||
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भगवान सभी प्राणियों के प्रति समान हैं| उनका न तो कोई द्वेष्य है और न कोई प्रिय है| वे अग्नि के समान है .... जैसे अग्नि अपने से दूर रहने वाले प्राणियों के शीत का निवारण नहीं करता, पास आने वालों का ही करता है, वैसे ही वे भक्तों पर अनुग्रह करते हैं|
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भगवान ने कहा है .....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
अर्थात् जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता||
जो सर्वात्मभाव में है वह भगवान के साथ एक है| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ मई २०१९
कृपा शंकर
२९ मई २०१९
सब कुछ भगवान का है|
ReplyDeleteभगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं .....
"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्| यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्||"
"शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः| सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि||" (९:२७-२८)
'हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे| इस प्रकार मेरे अर्पण करनेसे कर्मबन्धनसे और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा| ऐसे अपने-सहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू मुझे ही प्राप्त हो जायगा|