Sunday, 2 June 2019

मेरे में इतनी क्षमता कहाँ कि मैं कोई साधना कर सकूँ? .....

मेरे में इतनी क्षमता कहाँ कि मैं कोई साधना कर सकूँ? .....
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इस अनंतता में जहाँ तक मेरी कल्पना जाती है, वह सब मैं ही हूँ| सामवेद का महावाक्य "तत्वमसि" यहीं पर सार्थक होता है| गुरु महाराज के आशीर्वाद और उनकी परम कृपा से ही यह सत्य जानने को मिला है| साथ साथ अपने वर्तमान चैतन्य की अल्पज्ञता और सीमितता का भी बोध हुआ है| मेरे में इतनी क्षमता कहाँ कि मैं कोई साधना कर सकूँ? पर गुरु महाराज ने करूणावश कृपा कर के यह दायित्व भी स्वयं अपने ऊपर ले लिया है| गुरु महाराज कहते हैं कि तुम तो निमित्त मात्र हो, कर्ता नहीं| कर्ता तो स्वयं परमात्मा है| उन्होंने यह कार्य मुझे दिया है, मैं तुम्हारे माध्यम से साधना करूँगा, तुम मुझे अवसर दो| फिर स्वयं परमात्मा ही तुम्हारे माध्यम से जो कुछ भी करना है वह करेंगे|
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माया का एक आवरण अभी भी शेष है, पर जैसे जैसे समर्पण में पूर्णता आयेगी वह आवरण भी दूर हो जाएगा| श्रुति भगवती द्वारा छान्दोग्य उपनिषद् में यह बहुत अच्छी तरह समझाया गया है|
गीता में निमित्तमात्र बनने के लिए अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण कहते है ....
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्|
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्||११:३३||"
इसका सार यही है कि हे सव्यसाचिन् तू केवल निमित्तमात्र बन जा| (दोनों हाथों से एक समान बाण चलाने का अभ्यास होने के कारण अर्जुन सव्यसाची कहलाता है).
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परमात्मा एक प्रवाह है| हम उन्हें अपने माध्यम से प्रवाहित होने दें| इस से अधिक कुछ भी करना हमारे लिए असंभव है| हम इस संसार में जिस खजाने को ढूँढ रहे हैं, वह खज़ाना तो हम स्वयं ही हैं| हम जिस आनंद को खोज रहे हैं, वह आनंद भी हम स्वयं ही हैं| स्वयं से अन्य कुछ है भी नहीं| इसी अनन्य भक्ति को भगवान श्रीकृष्ण ने अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति कहा है| अनंतता की गहनतम स्थायी अनुभूति हमें समत्व प्रदान कर सकती है जहाँ हम परमात्मा का बोध करने में समर्थ हो सकते हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ मई २०१९

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