दूसरे एक स्थान पर मेरे एक मित्र हैं, जो किसी जमाने में भगवान के बहुत अच्छे भक्त और सज्जन व्यक्ति थे, लेकिन अब एक असुर/राक्षस (Monster) मात्र बन कर रह गये हैं। उनके अहंकार की अत्यधिक प्रबलता और भौतिक धन की प्रचूरता के अभिमान ने उन्हें मनुष्य से राक्षस बना दिया है।
मैंने उनकी सहायता का प्रयास किया लेकिन पूर्णतः विफल रहा। किसी तरह उनसे बच कर मैं ही बापस आ गया। अपने कर्मों के फल वे भुगत रहे हैं।
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परमात्मा के निरंतर स्मरण, चिंतन, मनन, जप, निदिध्यासन, और ध्यान, आदि के अतिरिक्त अन्य सब दायित्वों से स्वयं को कभी न कभी मुक्त कर लेना चाहिए। हम न तो किसी के बंधन में हैं, और न कोई अन्य हमारे बंधन में। हम परमात्मा में स्वतंत्र हैं, किसी भी तरह का कोई बंधन हम पर नहीं है। वास्तविक स्वतन्त्रता परमात्मा में ही है।
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"ऊधौ, कर्मन की गति न्यारी।
सब नदियाँ जल भरि-भरि रहियाँ सागर केहि बिध खारी॥
उज्ज्वल पंख दिये बगुला को कोयल केहि गुन कारी॥
सुन्दर नयन मृगा को दीन्हे बन-बन फिरत उजारी॥
मूरख-मूरख राजे कीन्हे पंडित फिरत भिखारी॥
सूर श्याम मिलने की आसा छिन-छिन बीतत भारी॥"
१ मई १९२४
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