Sunday, 2 February 2020

हम जहाँ हैं, वहीं भगवान हैं .....

हम जहाँ हैं, वहीं भगवान हैं, वहीं सारे तीर्थ हैं, वहीं सारे संत-महात्मा हैं, कहीं भी किसी के भी पीछे-पीछे नहीं भागना है| भगवान हैं, यहीं हैं, इसी समय हैं, और सर्वदा हैं| वे ही इन नासिकाओं से सांस ले रहे हैं, वे ही इस हृदय में धड़क रहे हैं, वे ही इन आँखों से देख रहे हैं, और इस शरीर-महाराज और मन, बुद्धि व चित्त के सारे कार्य वे ही संपादित कर रहे हैं| उनके सिवाय अन्य किसी का कोई अस्तित्व नहीं है| बाहर की भागदौड़ एक मृगतृष्णा है, बाहर कुछ भी नहीं मिलने वाला| परमात्मा की अनुभूति निज कूटस्थ-चैतन्य में ही होगी|

जब परमात्मा की अनुभूति हो जाये तब इधर-उधर की भागदौड़ बंद हो जानी चाहिए. उन्हीं की चेतना में रहें|
किसी ने मुझ से पूछा कि मेरा सिद्धान्त, मत और धर्म क्या है?
मेरा स्पष्ट उत्तर था .....
मेरा कोई सिद्धान्त नहीं है, मेरा कोई मत या पंथ नहीं है, मेरा कोई धर्म नहीं है, और मेरा कोई कर्तव्य नहीं है| मेरा समर्पण सिर्फ और सिर्फ परमात्मा के लिए है| स्वयं परमात्मा ही मेरे सिद्धान्त, मत/पंथ, धर्म और कर्तव्य हैं| उनसे अतिरिक्त मेरा कोई नहीं है| वे ही मेरे सर्वस्व हैं| मेरा कोई पृथक अस्तित्व भी नहीं है| यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति||

२ फरवरी २०२० 

4 comments:

  1. जिन के स्मरण मात्र से भगवान की भक्ति जागृत हो जाए, जिनके समक्ष जाते ही सुषुम्ना चैतन्य हो जाए, हृदय परमप्रेममय हो जाए, और हम स्वतः ही नतमस्तक हो जाएँ, वे ही सच्चे संत हैं| उन्हीं का सत्संग सार्थक है|
    जो सिर्फ भगवान की बातें करते हैं, पर जिन में अहंकार, लोभ और असत्य व्यक्त हो रहा हो, उन का संग विष की तरह छोड़ देना चाहिए| वे संत नहीं हो सकते|

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  2. आध्यात्मिक दृष्टि से हमारा स्वयं का उत्थान ही राष्ट्र का उत्थान है| पूर्णतः समर्पित होकर हम निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करेंगे तो राष्ट्र में भी परमात्मा व्यक्त होंगे| यह आत्म-साक्षात्कार ही सबसे बड़ी सेवा है जो हम निज जीवन में कर सकते हैं|

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  3. पूर्णता सिर्फ परमात्मा में है| हम उस पूर्णता के साथ एक होकर स्वयं भी पूर्ण हों| जहाँ पूर्णता है, वहाँ कोई कमी नहीं हो सकती| वह पूर्णता व्यक्त होती है पूर्ण भक्ति और समर्पण से| हमारा परमप्रेम ही भक्ति है| उस परमप्रेम को हम जागृत करें|

    ॐ पूर्णमदः पूणमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते| पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते||
    ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः||

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  4. भगवान एक मधुर रस हैं जिनका हम रसपान करें| वे एक प्रवाह हैं जिसको अपने भीतर बहने दें और स्वयं भी उसी में बह कर उन के साथ एक हो जाएँ| किसी भी तरह के वाद-विवाद में न पड़ें| सामने कोई फल या मिठाई रखी हो तो मजा उसको खाने में है, न कि उस की विवेचना करने में| भगवान के नाम को चखो, खाओ, पीओ, और मतवाले होकर उसी में डूब जाओ| बाकी सब निरर्थक बाते हैं|

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