परमात्मा के लिए "परमशिव" शब्द मुझे बहुत प्रिय है .....
मैं परमात्मा के लिए "परमशिव" शब्द का प्रयोग करता हूँ| परमात्मा के सम्बोधन के लिए पता नहीं क्यों "परमशिव" शब्द व्यक्तिगत रूप से मुझे सबसे अधिक प्रिय लगता है| वर्षों पहिले जब से इस शब्द को सुना था तभी से इस शब्द पर और इस से हुई अनुभूतियों पर मैं मोहित हूँ| दर्शनशास्र अति गहन हैं| उनका वास्तविक ज्ञान तो परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति से ही होता है| हमें दर्शनशास्त्रों के बृहद अरण्य में विचरण के स्थान पर परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति पर ही पूरा ध्यान देना चाहिए| दर्शनशास्त्र हमें दिशा दे सकते हैं पर अनुभूति तो परमशिव की परमकृपा से ही होती है| उनकी परमकृपा होने पर सारा ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है|
.
परमशिव का शाब्दिक अर्थ होता है ..... परम कल्याणकारी| पर वास्तव में यह एक अनुभूति है जो तब होती है जब हमारे प्राणों की गहनतम चेतना (जिसे तंत्र में कुण्डलिनी महाशक्ति कहते हैं) सहस्त्रार चक्र और ब्रह्मरंध्र का भी भेदन कर परमात्मा की अनंतता में विचरण कर बापस लौट आती है| परमात्मा की वह अनंतता ही "परमशिव" है| यह मुझ बुद्धिहीन अकिंचन को गुरुकृपा से ही समझ में आया है| वह अनन्तता ही परमशिव है जो परम कल्याणकारी है|
.
जहाँ तक मुझे ज्ञात है, इस शब्द का प्रयोग एक तो स्वनामधन्य आचार्य शंकर ने अपने ग्रंथ "सौंदर्य लहरी" में किया है .....
"सुधा सिन्धोर्मध्ये सुरविटपवाटी परिवृते, मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिन्तामणि गृहे|
शिवाकारे मञ्चे परमशिव पर्यङ्क निलयाम्, भजन्ति त्वां धन्यां कतिचन चिदानन्द लहरीम्||"
.
परमशिव का शाब्दिक अर्थ होता है ..... परम कल्याणकारी| पर वास्तव में यह एक अनुभूति है जो तब होती है जब हमारे प्राणों की गहनतम चेतना (जिसे तंत्र में कुण्डलिनी महाशक्ति कहते हैं) सहस्त्रार चक्र और ब्रह्मरंध्र का भी भेदन कर परमात्मा की अनंतता में विचरण कर बापस लौट आती है| परमात्मा की वह अनंतता ही "परमशिव" है| यह मुझ बुद्धिहीन अकिंचन को गुरुकृपा से ही समझ में आया है| वह अनन्तता ही परमशिव है जो परम कल्याणकारी है|
.
जहाँ तक मुझे ज्ञात है, इस शब्द का प्रयोग एक तो स्वनामधन्य आचार्य शंकर ने अपने ग्रंथ "सौंदर्य लहरी" में किया है .....
"सुधा सिन्धोर्मध्ये सुरविटपवाटी परिवृते, मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिन्तामणि गृहे|
शिवाकारे मञ्चे परमशिव पर्यङ्क निलयाम्, भजन्ति त्वां धन्यां कतिचन चिदानन्द लहरीम्||"
प्रख्यात वैदिक विद्वान श्री अरुण उपाध्याय के अनुसार अनाहत चक्र में कल्पवृक्ष के नीचे शिव रूपी मञ्च है| उसका पर्यङ्क परमशिव है| आकाश में सूर्य से पृथ्वी तक रुद्र, शनि कक्षा (१००० सूर्य व्यास तक सहस्राक्ष) तक शिव, उसके बाद १ लाख व्यास दूर तक शिवतर, सौर मण्डल की सीमा तक शिवतम है| आकाशगंगा में सदाशिव तथा उसके बाहर विश्व का स्रोत परमशिव है जिसने सृष्टि के लिये सङ्कल्प किया|
कश्मीर शैव दर्शन के आचार्य अभिनवगुप्त ने भी प्रत्यभिज्ञा दर्शन में "परमशिव" शब्द का प्रयोग किया है| "प्रत्यभिज्ञा" कश्मीर शैव दर्शन का बहुत प्यारा शब्द है जिसका अर्थ है ..... पहले से देखे हुए को पहिचानना, या पहले से देखी हुई वस्तु की तरह की कोई दूसरी वस्तु देखकर उसका ज्ञान प्राप्त करना|
.
एक शब्द "सदाशिव" है जिसका शाब्दिक अर्थ तो है सदा कल्याणकारी और नित्य मंगलमय| पर यह भी एक अनुभूति है जो विशुद्धि चक्र के भेदन के पश्चात होती है|
ऐसे ही एक "रूद्र" शब्द है जिस में ‘रु’ का अर्थ है .... दुःख, तथा ‘द्र’ का अर्थ है .... द्रवित करना या हटाना| दुःख को हरने वाला रूद्र है|
दुःख का भी शाब्दिक अर्थ है .... 'दुः' यानि दूरी, 'ख' यानि आकाश तत्व रूपी परमात्मा| परमात्मा से दूरी ही दुःख है और समीपता ही सुख है| रुद्र भी एक अनुभूति है जो ध्यान में गुरुकृपा से ही होती है|
.
हमारे स्वनामधन्य महान आचार्यों को ध्यान में जो प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ हुईं उनके आधार पर ही उन्होंने गहन दर्शन शास्त्रों की रचना की| हमारा जीवन अति अल्प है, पता नहीं कौन सी सांस अंतिम हो, अतः अपने हृदय के परमप्रेम को जागृत कर यथासंभव अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में ही व्यतीत करना चाहिए| वे जो ज्ञान करा दें वह भी ठीक है, और जो न कराएँ वह भी ठीक है| उन परमात्मा को ही मैं 'परमशिव' के नाम से ही संबोधित करता हूँ ..... यही परमशिव शब्द का रहस्य है| उन परमशिव का भौतिक स्वरूप ही शिवलिंग है जिसमें सब का लीन यानि विलय हो जाता है, जिस में सब समाहित है|
.
और भी कई बाते हैं जिनको लिखने की अनुमति नहीं है| जो भी ज्ञान मुझे है, उसका पूरा श्रेय मैं गुरुकृपा को देता हूँ| गुरुकृपा ही निजानुभूतियों द्वारा यह सब ज्ञान करा देती है| सहस्त्रार गुरु स्थान है जहाँ उनके चरण कमलों का ध्यान होता है| ब्रह्मरंध्र से परे जो है वह परमशिव है| गुरु तत्व ही शिव तत्व का बोध कराता है|
.
एक शब्द "सदाशिव" है जिसका शाब्दिक अर्थ तो है सदा कल्याणकारी और नित्य मंगलमय| पर यह भी एक अनुभूति है जो विशुद्धि चक्र के भेदन के पश्चात होती है|
ऐसे ही एक "रूद्र" शब्द है जिस में ‘रु’ का अर्थ है .... दुःख, तथा ‘द्र’ का अर्थ है .... द्रवित करना या हटाना| दुःख को हरने वाला रूद्र है|
दुःख का भी शाब्दिक अर्थ है .... 'दुः' यानि दूरी, 'ख' यानि आकाश तत्व रूपी परमात्मा| परमात्मा से दूरी ही दुःख है और समीपता ही सुख है| रुद्र भी एक अनुभूति है जो ध्यान में गुरुकृपा से ही होती है|
.
हमारे स्वनामधन्य महान आचार्यों को ध्यान में जो प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ हुईं उनके आधार पर ही उन्होंने गहन दर्शन शास्त्रों की रचना की| हमारा जीवन अति अल्प है, पता नहीं कौन सी सांस अंतिम हो, अतः अपने हृदय के परमप्रेम को जागृत कर यथासंभव अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में ही व्यतीत करना चाहिए| वे जो ज्ञान करा दें वह भी ठीक है, और जो न कराएँ वह भी ठीक है| उन परमात्मा को ही मैं 'परमशिव' के नाम से ही संबोधित करता हूँ ..... यही परमशिव शब्द का रहस्य है| उन परमशिव का भौतिक स्वरूप ही शिवलिंग है जिसमें सब का लीन यानि विलय हो जाता है, जिस में सब समाहित है|
.
और भी कई बाते हैं जिनको लिखने की अनुमति नहीं है| जो भी ज्ञान मुझे है, उसका पूरा श्रेय मैं गुरुकृपा को देता हूँ| गुरुकृपा ही निजानुभूतियों द्वारा यह सब ज्ञान करा देती है| सहस्त्रार गुरु स्थान है जहाँ उनके चरण कमलों का ध्यान होता है| ब्रह्मरंध्र से परे जो है वह परमशिव है| गुरु तत्व ही शिव तत्व का बोध कराता है|
किसी को विस्तार से सिद्धान्त रूप में ही कुछ जानना है तो शिवपुराण, लिंगपुराण और स्कन्दपुराण जैसे विशाल ग्रन्थ हैं; कश्मीर शैवदर्शन और वीरशैवदर्शन जैसी परम्पराओं के भी अनेक ग्रन्थ है जिन का स्वाध्याय करते रहें|
आप सब में अन्तस्थ परमशिव को मैं साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का समर्पण करता हूँ| ॐ तत्सत् ! ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय |ॐ नमः शिवाय || हर हर महादेव || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२९ जनवरी २०२०
कृपा शंकर
२९ जनवरी २०२०
पुरुषार्थ क्या है? पुरुष शब्द का अर्थ है ... जो हमारे पुर यानि हम सब के अन्तर में स्थित हैं (या शयन कर रहे हैं) .... आत्मरूप परमात्मा|
ReplyDeleteपरमात्मा हम सब के भीतर हैं, अतः वे ही एकमात्र पुरुष है, और उनको पूर्ण निष्ठा से पाने का प्रयास ही पुरुषार्थ है|
आत्मा को पुरुषार्थ की ओर प्रवृत्त न करना आत्मा का हनन यानि आत्म-ह्त्या है|
दूसरे शब्दों में हमारा आत्मतत्व ही पुरुष है और उसमें स्थिति ही पुरुषार्थ है| उस परम पुरुष के साथ हम एक हों| वे ही एकमात्र सत्य हैं| उनकी कल्पना स्वप्न हैं, पर वे स्वप्नदृष्टा स्वयं परम सत्य हैं| उनका आनंद उनकी अनुभूति में है, वर्णन में नहीं|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||