जीवन के सब अभाव दूर होंगे. आकाशस्थ सूर्यमण्डल में परम-पुरुष का सदा ध्यान करें ...
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना| परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्||८:८||"
अर्थात् हे पार्थ ! अभ्यासयोग से युक्त अन्यत्र न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ (साधक) परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना| परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्||८:८||"
अर्थात् हे पार्थ ! अभ्यासयोग से युक्त अन्यत्र न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ (साधक) परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।
उपरोक्त श्लोक पर स्वनामधन्य भाष्यकार आचार्य शंकर कहते हैं ....
हे पार्थ, अभ्यासयोगयुक्त अनन्यगामी चित्त द्वारा अर्थात् चित्तसमर्पण के आश्रयभूत मुझ एक परमात्मा में ही विजातीय प्रतीतियों के व्यवधान से रहित तुल्य प्रतीति की आवृत्तिका नाम अभ्यास है, वह अभ्यास ही योग है| ऐसे अभ्यासरूप योग से युक्त उस एक ही आलम्बन में लगा हुआ विषयान्तर में न जाने वाला जो योगीका चित्त है उस चित्त द्वारा शास्त्र और आचार्य के उपदेशानुसार चिन्तन करता हुआ योगी परम निरतिशय -- दिव्य पुरुषको -- जो आकाशस्थ सूर्यमण्डलमें परम पुरुष है -- उसको प्राप्त होता है।
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इस से आगे भगवान कहते हैं .....
"कविं पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः| सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्||८:९||"
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव| भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्||८:१०||"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः| यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये||८:११||"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च| मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्||८:१३||"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः| तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः||८:१४||"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्| नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः||८:१५||"
हे पार्थ, अभ्यासयोगयुक्त अनन्यगामी चित्त द्वारा अर्थात् चित्तसमर्पण के आश्रयभूत मुझ एक परमात्मा में ही विजातीय प्रतीतियों के व्यवधान से रहित तुल्य प्रतीति की आवृत्तिका नाम अभ्यास है, वह अभ्यास ही योग है| ऐसे अभ्यासरूप योग से युक्त उस एक ही आलम्बन में लगा हुआ विषयान्तर में न जाने वाला जो योगीका चित्त है उस चित्त द्वारा शास्त्र और आचार्य के उपदेशानुसार चिन्तन करता हुआ योगी परम निरतिशय -- दिव्य पुरुषको -- जो आकाशस्थ सूर्यमण्डलमें परम पुरुष है -- उसको प्राप्त होता है।
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इस से आगे भगवान कहते हैं .....
"कविं पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः| सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्||८:९||"
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव| भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्||८:१०||"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः| यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये||८:११||"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च| मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्||८:१३||"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः| तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः||८:१४||"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्| नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः||८:१५||"
अर्थात् .... "जो पुरुष सर्वज्ञ, प्राचीन (पुराण), सबके नियन्ता, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर, सब के धाता, अचिन्त्यरूप, सूर्य के समान प्रकाश रूप और (अविद्या) अन्धकार से परे तत्त्व का अनुस्मरण करता है, वह (साधक) अन्तकाल में योगबल से प्राण को भ्रकुटि के मध्य सम्यक् प्रकार स्थापन करके निश्चल मन से भक्ति युक्त होकर उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता हैे वेद के जानने वाले विद्वान जिसे अक्षर कहते हैं; रागरहित यत्नशील पुरुष जिसमें प्रवेश करते हैं; जिसकी इच्छा से (साधक गण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं - उस पद (लक्ष्य) को मैं तुम्हें संक्षेप में कहूँगा|
सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है| परम सिद्धि को प्राप्त हुये महात्माजन मुझे प्राप्त कर अनित्य दुःख के आलयरूप (गृहरूप) पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं|"
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जिनके संकल्प से यह सृष्टि सृष्ट हुई है, जीवन उन परमपुरुष यानि परमशिव को समर्पित हो जाये तो क्या जीवन में कोई अभाव रह सकता है? हृदय विदीर्ण हो रहा है भगवान के बिना| जीवन की सबसे पहली आवश्यकता परमात्मा हैं|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
३१ जनवरी २०२०
सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है| परम सिद्धि को प्राप्त हुये महात्माजन मुझे प्राप्त कर अनित्य दुःख के आलयरूप (गृहरूप) पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं|"
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जिनके संकल्प से यह सृष्टि सृष्ट हुई है, जीवन उन परमपुरुष यानि परमशिव को समर्पित हो जाये तो क्या जीवन में कोई अभाव रह सकता है? हृदय विदीर्ण हो रहा है भगवान के बिना| जीवन की सबसे पहली आवश्यकता परमात्मा हैं|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
३१ जनवरी २०२०
एक प्रश्न था कि हम इस सृष्टि के लिए हैं या यह सृष्टि हमारे लिए है?
ReplyDeleteइसका उत्तर यही है कि न तो हम इस सृष्टि के लिए हैं और न ही यह सृष्टि हमारे लिए है| हम स्वयं ही यह सृष्टि, और इस का संकल्प हैं| यह सृष्टि परमशिव का संकल्प है| परमशिव के साथ संयुक्त होकर ही हम इस में कुछ भी परिवर्तन ला सकते हैं|
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !