आत्म-सूर्य का ध्यान करें ......
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बंद आँखों के अंधकार के पीछे भ्रूमध्य में एक परम ज्योति का आभास होता है जिसका उल्लेख गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने किया है| अभ्यास करते करते वहाँ एक सूर्यमंडल का आभास होने लगता है, जिसका हम ध्यान करें| यह सूर्य-मण्डल ही कूटस्थ है| कूटस्थ शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कई बार किया है| यह ज्योति भ्रूमध्य से आज्ञा-चक्र में, फिर सहस्त्रार में, फिर सम्पूर्ण अस्तित्व में व्याप्त हो जाती है| उस का ध्यान करते करते हम स्वयं ज्योतिर्मय बनें| यह सूर्यमण्डल ही गायत्री मंत्र के सविता देव हैं जिनकी भर्ग: ज्योति का हम ध्यान करते हैं| ये ही ज्योतिर्मय ब्रह्म हैं|
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साथ साथ जब नाद-श्रवण होने लगे तब उसमें भी चित्त को विलीन कर दें| अपनी चेतना को पूरी सृष्टि में और उससे भी परे विस्तृत कर दें| परमात्मा की अनंतता ही हमारी वास्तविक देह है| सर्वत्र व्याप्त भगवान वासुदेव हर निष्ठावान की निरंतर रक्षा करते हैं, यह उनका आश्वासन है|
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भगवान श्रीराम ने वचन दिया है .....
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते| अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम||"
(वाल्मीकि रामायण ६/१८/३३).
अर्थात जो एक बार भी शरणमें आकर 'मैं तुम्हारा हूँ' ऐसा कहकर मेरे से रक्षा की याचना करता है, उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय कर देता हूँ ....यह मेरा व्रत है|
जब भगवान ने स्वयं इतना बड़ा आश्वासन दिया है तब भय किस का? हम स्वयं राममय बनें|
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हे अनंत के स्वामी, हे सृष्टिकर्ता, जीवन और मृत्यु से परे मैं सदा तुम्हारे साथ एक हूँ और सदा एक ही रहूँगा| मैं यह भौतिक देह नहीं, बल्कि तुम्हारी अनंतता और परम प्रेम हूँ| इस अनंतता और परमप्रेम का ही हम ध्यान करें|
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रात्री को सोने से पूर्व भगवान का गहनतम ध्यान कर के ही सोयें, वह भी इस तरह जैसे जगन्माता की गोद में निश्चिन्त होकर सो रहे हैं| प्रातः उठते ही एक गहरा प्राणायाम कर के कुछ समय के लिए भगवान का ध्यान करें| दिवस का प्रारम्भ सदा भगवान के ध्यान से होना चाहिए| दिन में जब भी समय मिले भगवान का फिर ध्यान करें| उनकी स्मृति निरंतर बनी रहे| यह शरीर चाहे टूट कर नष्ट हो जाए, पर परमात्मा की स्मृति कभी न छूटे|
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आप सब परमात्मा के साकार रूप हैं, आप सब ही मेरे प्राण हैं| आप सब को नमन!
ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ जुलाई २०१९
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बंद आँखों के अंधकार के पीछे भ्रूमध्य में एक परम ज्योति का आभास होता है जिसका उल्लेख गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने किया है| अभ्यास करते करते वहाँ एक सूर्यमंडल का आभास होने लगता है, जिसका हम ध्यान करें| यह सूर्य-मण्डल ही कूटस्थ है| कूटस्थ शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कई बार किया है| यह ज्योति भ्रूमध्य से आज्ञा-चक्र में, फिर सहस्त्रार में, फिर सम्पूर्ण अस्तित्व में व्याप्त हो जाती है| उस का ध्यान करते करते हम स्वयं ज्योतिर्मय बनें| यह सूर्यमण्डल ही गायत्री मंत्र के सविता देव हैं जिनकी भर्ग: ज्योति का हम ध्यान करते हैं| ये ही ज्योतिर्मय ब्रह्म हैं|
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साथ साथ जब नाद-श्रवण होने लगे तब उसमें भी चित्त को विलीन कर दें| अपनी चेतना को पूरी सृष्टि में और उससे भी परे विस्तृत कर दें| परमात्मा की अनंतता ही हमारी वास्तविक देह है| सर्वत्र व्याप्त भगवान वासुदेव हर निष्ठावान की निरंतर रक्षा करते हैं, यह उनका आश्वासन है|
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भगवान श्रीराम ने वचन दिया है .....
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते| अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम||"
(वाल्मीकि रामायण ६/१८/३३).
अर्थात जो एक बार भी शरणमें आकर 'मैं तुम्हारा हूँ' ऐसा कहकर मेरे से रक्षा की याचना करता है, उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय कर देता हूँ ....यह मेरा व्रत है|
जब भगवान ने स्वयं इतना बड़ा आश्वासन दिया है तब भय किस का? हम स्वयं राममय बनें|
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हे अनंत के स्वामी, हे सृष्टिकर्ता, जीवन और मृत्यु से परे मैं सदा तुम्हारे साथ एक हूँ और सदा एक ही रहूँगा| मैं यह भौतिक देह नहीं, बल्कि तुम्हारी अनंतता और परम प्रेम हूँ| इस अनंतता और परमप्रेम का ही हम ध्यान करें|
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रात्री को सोने से पूर्व भगवान का गहनतम ध्यान कर के ही सोयें, वह भी इस तरह जैसे जगन्माता की गोद में निश्चिन्त होकर सो रहे हैं| प्रातः उठते ही एक गहरा प्राणायाम कर के कुछ समय के लिए भगवान का ध्यान करें| दिवस का प्रारम्भ सदा भगवान के ध्यान से होना चाहिए| दिन में जब भी समय मिले भगवान का फिर ध्यान करें| उनकी स्मृति निरंतर बनी रहे| यह शरीर चाहे टूट कर नष्ट हो जाए, पर परमात्मा की स्मृति कभी न छूटे|
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आप सब परमात्मा के साकार रूप हैं, आप सब ही मेरे प्राण हैं| आप सब को नमन!
ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ जुलाई २०१९
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