Friday, 2 August 2019

आत्म-मंथन ही समुद्र-मंथन है .....

आत्म-मंथन ही समुद्र-मंथन है .....
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हमारा मस्तिष्क यानि मस्तक ही समुद्र है| प्राणवाहिनी नाड़ियों से प्राण बहते हैं जो मस्तक में आकर मिल जाते हैं, वैसे ही जैसे नदियाँ आकर समुद्र में मिल जाती हैं| इसलिए मस्तक समुद्र है| आज्ञा-चक्र ही कूर्म-पृष्ठ है| उसके ऊपर जो त्रिकोण योनि-स्थान है, वह सुमेरु पर्वत है| चंचल प्राण ही बंधन यानि वह शृंखला है जिसे प्रवृत्ति(राक्षस) और निवृत्ति (देवता) दोनों ओर से खींच रहे हैं| स्थूल रूप से श्वास-प्रश्वास ही प्राणों की अभिव्यक्ति हैं| कुर्मपृष्ठस्थ ब्रह्मयोनि कूटस्थ रूपी पर्वत में सजगता से गुरु-प्रदत्त विधि से क्रिया ही समुद्र-मंथन यानि आत्म-मंथन है| घर्षण से जो ज्योतियाँ कूटस्थ में दिखती हैं, वे रत्न हैं| अन्त में सहस्रार से अमृत की प्राप्ति होती है| आनंद ही अमृत्व है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ गुरु ! ॐ ॐ ॐ !!

31 जुलाई 2019

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