ध्यान साधना ......
.
परमात्मा के प्रति पूर्ण प्रेम के साथ, जिह्वा को ऊपर पीछे की ओर मोड़ कर तालु में लगाकर, भ्रूमध्य पर दृष्टी एकाग्र कर, नीरव शान्त तथा एकान्त स्थल में सुविधाजनक मुद्रा में कमर सीधी रखते हुए बैठकर धीरे-धीरे श्रद्धापूर्वक अजपा-जप, ओंकार, द्वादशाक्षारी भागवत मन्त्र, गायत्री मन्त्र, या किसी अन्य गुरु-प्रदत्त मन्त्र को मानसिक रूप से जपते हुए ध्यान का अभ्यास किया जाता है|
.
किसी भी साधना को करने का महत्त्व है, न कि उसकी चर्चा करने का| आपके सामने फल रखे हैं तो आनंद उनको खाने में है, न कि उनकी विवेचना करने में| अतः उसकी अनावश्यक चर्चा न कर, उसका अभ्यास ही करना चाहिए| यह साधना एक क्षण में भी संपन्न हो सकती है और कई जन्मों में भी , अतः इसकी चिंता छोड़ कर इसका परिणाम भी परमात्मा को अर्पित कर देना चाहिए|
.
हमारा मन परमात्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी पूर्ण विश्रान्ति नहीं पा सकता, अतः परमात्मा का स्मरण नित्य निरंतर रखने का अभ्यास करना चाहिए| इसके अतिरिक्त स्वाध्याय और सत्संग भी यथासंभव करना चाहिए| जो साहित्य निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा दे वही सार्थक है, और परमात्मा का निरंतर संग ही वास्तविक सत्संग है|
.
इधर उधर के अनावश्यक भ्रमजाल में न फँस कर परमात्मा से प्रेम करो| इसी में जीवन की सार्थकता है|
.
परमात्मा के प्रति पूर्ण प्रेम के साथ, जिह्वा को ऊपर पीछे की ओर मोड़ कर तालु में लगाकर, भ्रूमध्य पर दृष्टी एकाग्र कर, नीरव शान्त तथा एकान्त स्थल में सुविधाजनक मुद्रा में कमर सीधी रखते हुए बैठकर धीरे-धीरे श्रद्धापूर्वक अजपा-जप, ओंकार, द्वादशाक्षारी भागवत मन्त्र, गायत्री मन्त्र, या किसी अन्य गुरु-प्रदत्त मन्त्र को मानसिक रूप से जपते हुए ध्यान का अभ्यास किया जाता है|
.
किसी भी साधना को करने का महत्त्व है, न कि उसकी चर्चा करने का| आपके सामने फल रखे हैं तो आनंद उनको खाने में है, न कि उनकी विवेचना करने में| अतः उसकी अनावश्यक चर्चा न कर, उसका अभ्यास ही करना चाहिए| यह साधना एक क्षण में भी संपन्न हो सकती है और कई जन्मों में भी , अतः इसकी चिंता छोड़ कर इसका परिणाम भी परमात्मा को अर्पित कर देना चाहिए|
.
हमारा मन परमात्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी पूर्ण विश्रान्ति नहीं पा सकता, अतः परमात्मा का स्मरण नित्य निरंतर रखने का अभ्यास करना चाहिए| इसके अतिरिक्त स्वाध्याय और सत्संग भी यथासंभव करना चाहिए| जो साहित्य निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा दे वही सार्थक है, और परमात्मा का निरंतर संग ही वास्तविक सत्संग है|
.
इधर उधर के अनावश्यक भ्रमजाल में न फँस कर परमात्मा से प्रेम करो| इसी में जीवन की सार्थकता है|
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ अक्टूबर २०१७
कृपा शंकर
१७ अक्टूबर २०१७
No comments:
Post a Comment