ॐ तत् सत् ----- निरंतर ब्रह्म-चिंतन द्वारा वीतराग व स्थितप्रज्ञ होकर ही हम इस समष्टि की सबसे बड़ी सेवा कर सकते हैं। किशोरावस्था से ही यह सत्य पढ़ता आ रहा हूँ, लेकिन अब इस समय अपनी निज-अनुभूतियों से यह बात पक्काई से कह सकता हूँ। आत्म-साक्षात्कार (Self-Realization) ही सबसे बड़ी सेवा है, जो हमारे माध्यम से सम्पन्न हो सकती है।
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सर्वव्यापी ब्रह्म का निरंतर चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करते हुए हम आत्म-साक्षात्कार की उस अवस्था में पहुँच जाते हैं, जिसमें "मैं" और "ब्रह्म" का भेद मिट जाता है। यहाँ बात स्वयं के कुछ बनने की है, न कि कुछ प्राप्त करने की। कुछ प्राप्त करने की भावना एक भटकाव यानि धोखा है।
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एक बार मैं ध्यानस्थ था तब अचानक ही अपने परम ज्योतिर्मय रूप में सूक्ष्म जगत में स्थित मेरे मार्गदर्शक एक महापुरुष, पद्मासन में मेरे समक्ष ध्यान में प्रकट हुए। उनकी देह शून्य में लटक रही थी। वे बहुत देर तक मुझे देखते रहे, फिर अङ्ग्रेज़ी भाषा में कहा -- "You be what I am", और तत्क्षण शून्य में विलीन हो गये। उनके शब्दों का अर्थ और कहने का अभिप्राय मैं बहुत अच्छी तरह से तुरंत समझ गया। यह आदेश था कूटस्थ सूर्यमण्डल में ध्यान करते हुए उनके साथ एकत्व, न कि उनके शब्दों का स्वाध्याय।
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥" (गीता)
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और क्या लिखूँ? मेरे पास शब्द नहीं हैं। मैं आप सब का सेवक हूँ। मैं सच्चिदानंद परमब्रह्म से प्रार्थना करता हूँ कि आप सभी का कल्याण हो। आप सब का जीवन कृतकृत्य और कृतार्थ हो। ॐ तत् सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ दिसंबर २०२५
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