Tuesday, 16 December 2025

परमात्मा से उनके परमप्रेम/अनुराग के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए ---

परमात्मा से उनके परमप्रेम/अनुराग के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए। उनकी याद आते ही दोनों नासिकाओं से सांसें चलने लगती हैं, सुषुम्ना चैतन्य हो जाती है, और एक दिव्य अलौकिक अवर्णनीय चेतना से पूरा हृदय भर जाता है। कभी कभी प्रेमाश्रुओं से नयन भी भर जाते हैं। परमात्मा का प्रत्यक्ष प्रेम चाहे अत्यल्प मात्रा में ही हो, संसार की बड़ी से बड़ी उपलब्धी है।
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कहने को तो भगवान की माया अपने आवरण और विक्षेप के द्वारा हमें परमात्मा से दूर रखती है, पर समझने की बात यह है कि हमारा लोभ और अहंकार ही आवरण व विक्षेप है जो हमें परमात्मा से दूर रखता है। जितनी मात्रा में हमारी चेतना में लोभ और अहंकार हैं उतने ही हम परमात्मा से दूर हैं। लोभ और अहंकार से मुक्ति ही वीतरागता है। वीतराग व्यक्ति ही महात्मा है, और वही स्थितप्रज्ञ हो सकता है। स्थितप्रज्ञता ही मोक्ष और परमात्मा का द्वार है। गीता में भगवान इसके बारे में कहते हैं --
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥" (गीता ६:२२)
ॐ तत् सत्। ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
१६ दिसंबर २०२५

पुनश्च: ---

भगवत्-प्राप्ति, यानि आत्म-साक्षात्कार -- मनुष्य के लिए सबसे अधिक सरल और सहज है। चाहे तो कोई भी मनुष्य ब्रह्मज्ञ हो सकता है, लेकिन हमारा लोभ और अहंकार ऐसे नहीं होने देता। हमारे शास्त्र तो कहते हैं कि भगवान की माया का आवरण और विक्षेप हमें भगवान से दूर करता है, लेकिन हमारा लोभ और अहंकार ही माया का मुख्य आवरण है।

अंतःकरण का पूर्ण समर्पण आवश्यक है। इसके लिए एक ही चीज की आवश्यकता है, और वह है सत्संग, सत्संग, और सत्संग॥ संक्षेप में तो मैंने लिख दिया, विस्तार से आप स्वयं अनुसंधान करें

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