हे प्रभु, स्वयं को मुझ में व्यक्त करो, आप और मैं एक हैं ---
(O Divine, Reveal Thyself unto me. Thou and I art one.).
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परमात्मा स्वयं हमारे शरीर महाराज को माध्यम बनाकर साँसें ले रहे हैं। पूरा ब्रह्मांड, यानि समस्त सृष्टि ही हमारा शरीर है। यह पक्का प्रमाण है कि वे हमारे साथ हैं। जब साँस अंदर आती है तब वे स्वयं हमारे में खिंचे चले आते हैं। जब तक साँस भीतर है, तब तक वे हमारे शरीर महाराज में हैं। जब साँस बाहर निकलती है तब हम उन में चले जाते हैं। यह अंदर-बाहर होने का खेल पता नहीं, भगवान कितने जन्मों से खेल रहे हैं !! जो वे हैं, वह ही हम हैं।
जब साँस पूरी तरह बाहर निकल जाती है उस अवस्था को बाह्य कुंभक कहते है। इस अवधि को सहज रूप से बढ़ाते रहें। किसी तरह का बल-प्रयोग न करें। उस अवस्था में मूर्धा में प्रणव मंत्र का जप करते रहें। जब सांसें बाहर जाती हैं, और भीतर आती हैं, तब हम अजपा-जप "सो -- हं" मंत्र के साथ करते हैं। लेकिन गुरु की आज्ञा से मैं इसका उल्टा जप "हं -- सः" करता हूँ। अर्ध या पूर्ण खेचरी मुद्रा में मूर्धा में ओंकार का मानसिक जप -- "नादानुसंधान" कहलाता है। यह बहुत बड़ी साधना है जिसका महत्व इतना अधिक है कि बताना बहुत कठिन है।
मूलाधार चक्र में घनीभूत प्राण-तत्व कुंडलिनी को जागृत कर गुरु-प्रदत्त विधि से मंत्र शक्ति द्वारा मेरुदंड के चक्रों में संचलन "क्रिया योग" है। इसमें एक ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय सद्गुरु का मार्गदर्शन अनिवार्य है। बिना गुरु के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन के यह साधना न करें, अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि ही हो सकती है।
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किसी भी साधना का एकमात्र उद्देश्य -- हमें अपने आत्म-स्वरूप में प्रतिष्ठित कराना है, न कि कुछ सांसारिक उपलब्धियाँ प्राप्त करवाना। हम परमात्मा की दृष्टि में क्या हैं? इसी का महत्व है। जो हम प्राप्त करना चाहते हैं वह तो हम स्वयं ही हैं। स्वयं से परे कुछ है ही नहीं।
हे प्रभु, स्वयं को मुझ में व्यक्त करो (Reveal Thyself unto me. Thou and I art one.)।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ नवंबर २०२५
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