ईश्वर की कृपा से सरल से सरल भाषा में मैं भगवान की भक्ति, आध्यात्मिक साधना और ब्रह्मविद्या पर अनेक लघु लेख लिख पाया। ब्रह्मविद्या को ही को उपनिषदों में "भूमा" कहा गया है, जिसे दर्शन शास्त्रों में "वेदान्त" भी कहते हैं। जो मैं नहीं लिख पाया वह मेरी सीमित बुद्धि की समझ से परे था।
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इसके अतिरिक्त मैंने लिखा है कि ऊंचे से ऊंचा तंत्र -- "आत्मानुसंधान" है, जिसे हंसःयोग और अजपाजप भी कहते हैं। ऊंचे से ऊंचा और बड़े से बड़ा मंत्र -- प्रणवमंत्र "ॐ" है। लगभग उतना ही प्रभावी -- तारकमन्त्र "रां" भी है। बड़े से बड़ा और ऊंचे से ऊंचा योग -- श्रीमद्भगवद्गीता का "पुरुषोत्तम योग" है जिसे स्वयं के पुरुषार्थ से नहीं, बल्कि ईश्वर की कृपा से ही समझा जा सकता है। जो "पुरुषोत्तम" हैं, वे ही "परमशिव" हैं। दोनों में कोई भेद नहीं हैं।
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साधना में कुछ सहायक बीजमंत्र जैसे "ऐं" "ह्रीं" "श्रीं" "क्लीं" आदि भी हैं जिनकी चर्चा यहाँ करना उचित नहीं है। वे किन्हीं सद्गुरु के मार्गदर्शन में ही जपे जाते हैं, क्योंकि उनमें भटकाव का भय है। सर्वश्रेष्ठ भक्ति गीता में बताई हुई "अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति" है, जो अतुल्य और अनुपम है। ऊंची से ऊंची साधना -- आत्मा की साधना है। नित्य नियमित स्वाध्याय के लिये सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ "श्रीमद्भगवद्गीता" है जो उपनिषदों का सार है। बड़े से बड़े गुरु "जगद्गुरू भगवान श्रीकृष्ण" हैं, शिवरूप में वे ही "दक्षिणामूर्ति" हैं।
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मेरी साधना -- प्राण-क्रिया और उपनिषदों व श्रीमद्भगवद्गीतानुसार समर्पण द्वारा परमात्मा का ध्यान है। इनके अतिरिक्त मुझे अन्य कुछ भी नहीं मालूम। यह जीवन जैसा भी परमात्मा ने दिया था, वैसा ही परमात्म्ना को समर्पित हैं। मेरे पास लिखने के लिये और कुछ भी नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ दिसंबर २०२५
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