Tuesday, 16 December 2025

परमात्मा की उच्चतम अनुभूति हमें "परमशिव" या "पुरुषोत्तम" के रूप में होती है। लेकिन कूटस्थ ब्रह्म के रूप में तो वे हर समय हमारे समक्ष हैं ---

परमात्मा की उच्चतम अनुभूति हमें "परमशिव" या "पुरुषोत्तम" के रूप में होती है। लेकिन कूटस्थ ब्रह्म के रूप में तो वे हर समय हमारे समक्ष हैं ---
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श्रीमद्भगवद्गीता में 'कूटस्थ' शब्द का प्रयोग अनेक बार कर के भगवान ने अपना परिचय भी स्वयं दे दिया है। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने को पाने का मार्ग भी बता दिया है। भक्ति की गहनता में दिखाई देने वाली 'ज्योति' और उसके साथ साथ सुनाई देने वाला 'नाद' ही कूटस्थ ब्रह्म की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति हैं।
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हमारा भ्रूमध्य 'कूटस्थ केंद्र' है। वहीं हमें 'ज्योति' और 'नाद' के रूप में परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। यही परमात्मा को पाने का सरलतम उपाय इस वर्तमान युग में है। परमात्मा की परम कृपा से ही मैं इसे समझ पा रहा हूँ।
अब जब साक्षात् परमात्मा की ही चर्चा कर ली है तो उनसे अन्य किसी भी विषय पर ध्यान -- आत्महत्या के समान है। भगवान स्वयं ही हमारी आत्मा हैं। उनसे पृथकता हमारे लिए आत्महत्या है। हम भगवान के अमृतपुत्र और उनके साथ एक हैं, और सदा एक ही रहेंगे। यह अनुभूति हमारे ऊपर परमात्मा का एक विशेष अनुग्रह है।
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श्रीमद्भगवद्गीता का सार गीता के पंद्रहवें अध्याय "पुरुषोत्तम योग" में है जिसे भगवान की कृपा से ही समझा जा सकता है। उसी अध्याय का सौलहवां श्लोक कहता है --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
अर्थात् - इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥
इसकी व्याख्या यही हो सकती है कि सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर नाशवान् हैं, केवल कूटस्थ ही अविनाशी है। स्वनामधन्य भगवान आचार्य शंकर आदि महान आचार्यों के विस्तृत भाष्यों का भी यही सार है।
कूट नाम माया का है, जिसके वञ्चना, छल, कुटिलता आदि पर्याय हैं। इस प्रकार से जो माया आदि में स्थित है, वह कूटस्थ है। संसार का बीज और अनंत होने के कारण वह कूटस्थ अक्षर कहा जाता है। उसे ही हम अक्षर ब्रह्म कहते हैं।
अविनाशी ईश्वर ही उत्तम पुरुष है, जो सब का भरण-पोषण करता है। वही परमात्मा है।
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और भी अधिक गहराई में जाते हैं तो पाते हैं कि परमात्मा -- क्षर से अतीत, और अक्षर से भी उत्तम हैं। इसीलिए वे "पुरुषोत्तम" हैं। उनकी आभा ही उनके चारों ओर छाया एक मण्डल है जो सूर्य की तरह प्रकाशमान है। उस कूटस्थ सूर्य-मण्डल में वे बिराजमान हैं। उन पुरुषोत्तम का ध्यान ही उनकी भक्ति है। उनकी ओर निहार कर ही मैं कृतकृत्य हुआ। वे पुरुषोत्तम मुझे अपने साथ एक कर के कृतार्थ करें। किसी आकांक्षा का जन्म ही न हो।
ॐ तत् सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवंबर २०२५

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