(१) चारों ओर इतना शोर है ........... क्या इस शोर में मौन संभव है ? .............
चारों ओर इतना ध्वनि प्रदूषण है .... जाएँ तो जाएँ कहाँ ?
इतने शोर में मौन कैसे रहें ? .......... क्या बाहर का शोर भी परमात्मा की ही अभिव्यक्ति हैं ?
बाहर का शोर बाधा है या परमात्मा की ही एक अभिव्यक्ति ?
बार बार मन में उठने वाले विचार भी भयंकर से भयंकर शोर से कम नहीं हैं| क्या यह भी परमात्मा का ही अनुग्रह है ?
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(२) पतंग उड़ता है और चाहता है कि वह उड़ता ही रहे, व उड़ते उड़ते आसमान को छू ले| पर वह नहीं जानता कि वह एक डोर से बंधा हुआ है जो उसे खींच कर बापस भूमि पर ले आती है|
असहाय है बेचारा ! और कर भी क्या सकता है ?
वैसे ही जीव भी चाहता है शिवत्व को प्राप्त करना, यानि परमात्मा को समर्पित होना| उसके लिए शरणागत भी होता है और साधना भी करता है पर अवचेतन में छिपी कोई वासना अचानक प्रकट होती है और उसे चारों खाने चित गिरा देती है| पता ही नहीं चलता कि अवचेतन में क्या क्या कहाँ कहाँ छिपा है|
क्या कोई Short Cut यानि लघु मार्ग है जो इन वासनाओं से मुक्त कर दे ?
इस कर्मों कि डोर से इस अल्प काल में कैसे मुक्त हो सकते हैं ? वह भी किसी लघु मार्ग से ?
सभी प्रकार के विक्षेपों और मिथ्या आवरणों से कैसे तुरंत प्रभाव से मुक्त हो सकते हैं ?
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(३) हम विश्व यानि परमात्मा की सृष्टि के बारे में अनेक धारणाएँ बना लेते हैं .........
फलाँ गलत है और फलाँ अच्छा, क्या हमारी इन धारणाओं का कोई महत्व या औचित्य है ?
ईश्वर कि सृष्टि में अपूर्णता कैसे हो सकती है जबकि ईश्वर तो पूर्ण है ?
क्या हमारी सोच ही अपूर्ण है ?
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(४) क्या यह संभव है कि पूरे मन को ही संसार के गुण-दोषों से हटा कर परमात्मा अर्थात प्रभु में लगा दिया जाए ? क्या इसका भी कोई लघुमार्ग यानि Short Cut है?
बार बार मन को प्रभु में लगाते हैं पर यह मानता ही नहीं है? भाग कर बापस आ जाता है |
अब इसका क्या करें ? क्या यह भूल भगवान की ही है कि उसने ऐसी चीज बनाई ही क्यों?
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ये सब शाश्वत प्रश्न हैं, कोई खाली बैठे की बेगार नहीं|
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हे प्रभु, तुम्हें इसी क्षण यहाँ आना ही पडेगा जहाँ तुमने मुझे रखा है| न तो तुम्हारी माया को और न तुम्हें ही जानने या समझने की कोई इच्छा है| अब तुम और छिप नहीं सकते| तुम्हें इसी क्षण यहाँ अनावृत होना ही पड़ेगा|
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तुम निरंतर मेरे साथ भी हो पर फिर भी धुएँ की एक पतली सी दीवार मध्य में है जिसके कारण तुम्हारी विस्मृति कभी कभी हो जाती है| पूर्ण अभेदता हो| किसी भी तरह का कोई भेद ना हो|
मेरा समर्पण पूर्ण हो| आपकी जय हो|
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ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
१५ जून २०१५
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