Saturday, 24 May 2025

इस जीवन का जो भी समय बचा है, वह धर्म, राष्ट्र व परमात्मा को समर्पित है।

 इस जीवन का जो भी समय बचा है, वह धर्म, राष्ट्र व परमात्मा को समर्पित है। हम शाश्वत आत्मा हैं जिसका धर्म -- परमात्मा को पूर्ण समर्पण है। यही राष्ट्र व समष्टि की सर्वोच्च सेवा है। हमें आवश्यकता व्यवहारिक उपासना की है, बौद्धिक चर्चा की नहीं। आध्यात्म की गूढ़ बातें बुद्धि द्वारा नहीं, प्रत्यक्ष गहन अनुभूतियों द्वारा ही समझ में आती हैं। जैसे शिक्षा में क्रम होते हैं -- एक बालक चौथी में पढ़ता है, एक बालक बारहवीं में, एक बालक कॉलेज में; वैसे ही साधना के भी क्रम होते हैं। प्रवचनों को सुनने, या उपदेशों को पढ़ने मात्र से हम परमात्मा को उपलब्ध नहीं हो सकते। हम जितने समय तक स्वाध्याय करते हैं, उससे कई गुणा अधिक समय तक परमात्मा की उपासना करनी पड़ती है।

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श्रुति भगवती कहती है ---
"नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्‌ ॥"
"नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्‌ ॥" (कठोपनिषद्)
अर्थात् -- "यह 'आत्मा' प्रवचन द्वारा लभ्य नहीं है, न मेधाशक्ति से, न बहुत शास्त्रों के श्रवण से 'यह' लभ्य है। यह आत्मा जिसका वरण करता है उसी के द्वारा 'यह' लभ्य है, उसी के प्रति यह 'आत्मा' अपने कलेवर को अनावृत करता है।"
''जो दुष्कर्मों से विरत नहीं हुआ है, जो शान्त नहीं है, जो अपने में एकाग्र (समाहित) नहीं है अथवा जिसका मन शान्त नहीं है ऐसे किसी को भी यह 'आत्मा' प्रज्ञा द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता।"
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आपके सामने मिठाई पड़ी है तो आनंद उसे खाने में हैं, न कि उसके विवरण में। आध्यात्मिक लेखों या पुस्तकों को सिर्फ पढ़ने मात्र से कोई लाभ नहीं है। उनके उपदेशों के अनुसार आचरण करना पड़ता है। पुस्तकों से पढ़कर कोई वायुयान का पायलट, या जलयान का कप्तान नहीं बन सकता। तैरने के बारे में पढ़ने मात्र से कोई तैरना नहीं सीख सकता। जैसे वातावरण में जो रहता है, वह वैसा ही बन जाता है। हम सब परमात्मा में ही निरंतर रमण करें।
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जब सत्यनिष्ठा से परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा होती है, तब परमात्मा स्वयं ही किन्हीं मार्गदर्शक ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य, या किसी अन्य माध्यम से मार्गदर्शन की व्यवस्था कर देते हैं। परमात्मा के प्रति प्रेम ही था जो मेरे माध्यम से व्यक्त हुआ। अब जैसी उनकी इच्छा होगी वैसा ही होगा। मेरी कोई आकांक्षा या अभिलाषा नहीं है, केवल एक अव्यक्त अभीप्सा है पूर्ण रूपेण समर्पित होने की।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२३ मई २०२५

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