गीता में भगवान कहते हैं ---
"ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥५:३॥" अर्थात - जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा, वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि, हे महाबाहो ! द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है॥
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अपने भाष्य में आचार्य शंकर कहते हैं --- उस कर्मयोगी को सदा संन्यासी ही समझना चाहिये कि जो न तो द्वेष करता है और न किसी वस्तु की आकाङ्क्षा ही करता है। अर्थात् जो सुख दुःख और उनके साधनों में उक्त प्रकार से रागद्वेष रहित हो गया है वह कर्म में बर्तता हुआ भी सदा संन्यासी ही है ऐसे समझना चाहिये। क्योंकि हे महाबाहो रागद्वेषादि द्वन्द्वों से रहित हुआ पुरुष सुखपूर्वक अनायास ही बन्धनसे मुक्त हो जाता है।
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भगवान् द्वारा यहां दी हुई संन्यास की परिभाषा प्रचलित निरर्थक धारणाओं को दूर कर देती है। वेषभूषा के बाह्य आडंबर की अपेक्षा आन्तरिक गुणों का अधिक महत्व है। श्रीकृष्ण के विचारानुसार राग और द्वेष से रहित पुरुष ही संन्यासी कहलाने योग्य है। यह एक बहुत गहरा विषय है जिस पर शांति से मनन करना चाहिये।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
भगवान् द्वारा यहां दी हुई संन्यास की परिभाषा प्रचलित निरर्थक धारणाओं को दूर कर देती है। वेषभूषा के बाह्य आडंबर की अपेक्षा आन्तरिक गुणों का अधिक महत्व है। श्रीकृष्ण के विचारानुसार राग और द्वेष से रहित पुरुष ही संन्यासी कहलाने योग्य है। यह एक बहुत गहरा विषय है जिस पर शांति से मनन करना चाहिये।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ मई २०२०
२४ मई २०२०
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