Wednesday, 28 July 2021

आत्मज्ञान ही परम धर्म है ---

आत्मज्ञान ही परम धर्म है। यह जन्म हमें आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए ही मिला है, इसे व्यर्थ करना परमात्मा के प्रति अपराध है। जब भगवान स्वयं समक्ष होते हैं, तब सारे धर्म-अधर्म, सिद्धान्त, उपदेश, कर्तव्य-अकर्तव्य, पाप-पुण्य -- सब तिरोहित हो जाते हैं। महत्व सिर्फ परमप्रेम और सत्यनिष्ठा का है, अन्य सब गौण है।

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आध्यात्म में "भटकाव" दारुण दुःखदायी है। माया की शक्ति बड़ी प्रबल है, उसे निज प्रयास से पार पाना असंभव है। बिना भगवान की कृपा के एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। भगवान की भक्ति (परमप्रेम) ही पार लगा सकती है। रामचरितमानस, श्रीमद्भगवद्गीता, व भागवत आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय; और भक्त संत-महात्माओं का सत्संग -- भक्ति बढ़ाने में सहायक है।
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भगवान सर्वत्र सदैव निरंतर हमारे समक्ष हैं, और क्या चाहिये? सदा उनकी चेतना में रहें। भगवान हैं, इसी समय हैं, हर समय हैं, यहीं पर हैं, सर्वदा हैं, और हमारे साथ एक हैं। वे ही हमारे प्राण और हमारा अस्तित्व हैं। वे कभी भी हमसे पृथक नहीं हो सकते। कहीं कोई भेद नहीं है। हम उन्हें समर्पित हों। शरणागति और समर्पण में कोई मांग, कामना, अपेक्षा या आकांक्षा नहीं होती। निरंतर उनका स्मरण करो। उनकी कृपा से हमारे सब दुःख, कष्ट दूर होंगे। अपनी श्रद्धा पर दृढ़ रहो। "राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥"
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एक गहन अभीप्सा हो, प्रचंड इच्छा शक्ति हो, और ह्रदय में परम प्रेम हो, तो भगवान को पाने से कोई भी विक्षेप या आवरण की मायावी शक्ति नहीं रोक सकती। जो सबके हृदय में हैं, उनकी प्राप्ति दुर्लभ नहीं हो सकती पर अन्य कोई इच्छा नहीं रहनी चाहिए।
"विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥" (रामचरितमानस)
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आप सब महात्माओं को नमन ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
ॐ तत्सत् ! ॐ स्वस्ति !
१६ जून २०२१

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