और क्या देखने को बाक़ी है? आप से दिल लगा के देख लिया .....
.
भगवान की भक्ति एक स्वभाविक प्रक्रिया है जो भगवान की कृपा से ही होती है| स्वयं के प्रयास से कोई भक्त नहीं बनता| प्रेमवश मैं बहुत सोच-समझ कर और पूरी जिम्मेदारी से लिख रहा हूँ कि भगवान की भक्ति भी एक धोखा है| जो एक बार भक्ति के चक्कर में पड़ जाता है उसके लिए बापस लौटना संभव नहीं रहता| फिर मिर्जा गालिब का वह शेर याद आता है कि .....
"इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के"|
मीराबाई का भी एक भजन है .....
"जो मैं ऐसा जानती प्रीत किए दुख होय, नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोई"|
.
जब से भगवान से प्रेम हुआ है, भगवान ने पकड़ लिया है| हर समय वे ही वे याद आते हैं और चारों ओर जिधर ही दृष्टि जाती है, उधर भी वे ही वे नज़र आते है| दुनिया के लिए अब अनुपयुक्त यानि misfit हो गए हैं| अतः सोच समझ कर ही भक्ति करें|
.
हमारा पीड़ित, दुःखी और बेचैन होना हमारी भगवान की ओर यात्रा का आरंभ है| मनुष्य इस संसार में सुख ढूँढता है, पर उसे निराशा ही हाथ लगती है| यह संसार सुखी होने का वादा करता है पर वास्तव में दुःखी ही करता है| दुःख आते ही हैं भगवान की याद दिलाने के लिए, अन्यथा भगवान को कोई याद नहीं करता| 'ख' आकाश तत्व को कहते है जो भगवान के लिए प्रयुक्त होता है (खं ब्रह्म:)| 'दुः' यानि दूरी| भगवान से दूरी ही दुःख है|
.
जब कोई अपने प्रेमास्पद को बिना किसी अपेक्षा या माँग के, निरंतर प्रेम करता है तो प्रेमास्पद को प्रेमी के पास आना ही पड़ता है| उसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता| प्रेमी स्वयं परम प्रेम बन जाता है| वह पाता है कि उसमें और प्रेमास्पद में कोई अंतर नहीं है| प्रेम की "कामना" और "बेचैनी" हमें प्रभु के दिए हुए वरदान हैं| मैं लौकिक दृष्टी से यहाँ उल्टी बात कह रहा हूँ पर यह सत्य है| किसी भी वस्तु की "कामना" इंगित करती है कि कहीं ना कहीं किसी चीज का "अभाव" है| यह "अभाव" ही हमें बेचैन करता है और हम उस बेचैनी को दूर करने के लिए दिन रात एक कर देते हैं, पर वह बेचैनी दूर नहीं होती और एक "अभाव" सदा बना ही रहता है| उस अभाव को सिर्फ भगवान की उपस्थिति ही भर सकती है, अन्य कुछ भी नहीं|
.
संसार की कोई भी उपलब्धि हमें "संतोष" नहीं देती क्योंकि "संतोष" तो हमारा स्वभाव है| वह हमें बाहर से नहीं मिलता बल्कि स्वयं उसे जागृत करना होता है| "संतोष" और "आनंद" दोनों ही हमारे स्वभाव हैं जिनकी प्राप्ति "परम प्रेम" से होती है| हमारा पीड़ित और बेचैन होना ही हमारी परमात्मा की ओर यात्रा की शुरुआत है| हमारे दुःख, पीडाएं और बेचैनी ही हमें भगवान की ओर जाने को बाध्य करते हैं| अगर ये नहीं होंगे तो हमें भगवान कभी भी नहीं मिलेंगे| अतः दुनिया वालो, दुःखी ना हों| भगवान को खूब प्रेम करो, प्रेम करो और पूर्ण प्रेम करो| हम को सभी कुछ मिल जायेगा| स्वयं प्रेममय बन जाओ|
.
अपना दुःख-सुख, अपयश-यश , हानि -लाभ, पाप-पुण्य, विफलता-सफलता, बुराई-अच्छाई, जीवन-मरण यहाँ तक कि अपना अस्तित्व भी सृष्टिकर्ता को बापस सौंप दो| उनके कृपासिन्धु में हमारी हिमालय सी भूलें, कमियाँ और पाप भी छोटे मोटे कंकर पत्थर से अधिक नहीं है| वे वहाँ भी शोभा दे रहे हैं| इस नारकीय जीवन से तो अच्छा है उस परम प्रेम में समर्पित हो जाएँ| वहाँ संतोषधन भी मिलेगा और आनंद भी मिलेगा| "प्रेम" ही भगवान का स्वभाव है|
.
भगवान के पास सब कुछ है पर एक चीज नहीं है जिसके लिए वे भी तरस रहे हैं, और वह है हमारा प्रेम| हम रूपया पैसा, पत्र पुष्प आदि जो कुछ भी चढाते हैं क्या वह सचमुच हमारा है? हम एक ही चीज भगवान को दे सकते हैं और वह है हमारा "प्रेम"| तो उसको देने में भी कंजूसी क्यों?
.
भगवान की भक्ति एक स्वभाविक प्रक्रिया है जो भगवान की कृपा से ही होती है| स्वयं के प्रयास से कोई भक्त नहीं बनता| प्रेमवश मैं बहुत सोच-समझ कर और पूरी जिम्मेदारी से लिख रहा हूँ कि भगवान की भक्ति भी एक धोखा है| जो एक बार भक्ति के चक्कर में पड़ जाता है उसके लिए बापस लौटना संभव नहीं रहता| फिर मिर्जा गालिब का वह शेर याद आता है कि .....
"इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के"|
मीराबाई का भी एक भजन है .....
"जो मैं ऐसा जानती प्रीत किए दुख होय, नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोई"|
.
जब से भगवान से प्रेम हुआ है, भगवान ने पकड़ लिया है| हर समय वे ही वे याद आते हैं और चारों ओर जिधर ही दृष्टि जाती है, उधर भी वे ही वे नज़र आते है| दुनिया के लिए अब अनुपयुक्त यानि misfit हो गए हैं| अतः सोच समझ कर ही भक्ति करें|
.
हमारा पीड़ित, दुःखी और बेचैन होना हमारी भगवान की ओर यात्रा का आरंभ है| मनुष्य इस संसार में सुख ढूँढता है, पर उसे निराशा ही हाथ लगती है| यह संसार सुखी होने का वादा करता है पर वास्तव में दुःखी ही करता है| दुःख आते ही हैं भगवान की याद दिलाने के लिए, अन्यथा भगवान को कोई याद नहीं करता| 'ख' आकाश तत्व को कहते है जो भगवान के लिए प्रयुक्त होता है (खं ब्रह्म:)| 'दुः' यानि दूरी| भगवान से दूरी ही दुःख है|
.
जब कोई अपने प्रेमास्पद को बिना किसी अपेक्षा या माँग के, निरंतर प्रेम करता है तो प्रेमास्पद को प्रेमी के पास आना ही पड़ता है| उसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता| प्रेमी स्वयं परम प्रेम बन जाता है| वह पाता है कि उसमें और प्रेमास्पद में कोई अंतर नहीं है| प्रेम की "कामना" और "बेचैनी" हमें प्रभु के दिए हुए वरदान हैं| मैं लौकिक दृष्टी से यहाँ उल्टी बात कह रहा हूँ पर यह सत्य है| किसी भी वस्तु की "कामना" इंगित करती है कि कहीं ना कहीं किसी चीज का "अभाव" है| यह "अभाव" ही हमें बेचैन करता है और हम उस बेचैनी को दूर करने के लिए दिन रात एक कर देते हैं, पर वह बेचैनी दूर नहीं होती और एक "अभाव" सदा बना ही रहता है| उस अभाव को सिर्फ भगवान की उपस्थिति ही भर सकती है, अन्य कुछ भी नहीं|
.
संसार की कोई भी उपलब्धि हमें "संतोष" नहीं देती क्योंकि "संतोष" तो हमारा स्वभाव है| वह हमें बाहर से नहीं मिलता बल्कि स्वयं उसे जागृत करना होता है| "संतोष" और "आनंद" दोनों ही हमारे स्वभाव हैं जिनकी प्राप्ति "परम प्रेम" से होती है| हमारा पीड़ित और बेचैन होना ही हमारी परमात्मा की ओर यात्रा की शुरुआत है| हमारे दुःख, पीडाएं और बेचैनी ही हमें भगवान की ओर जाने को बाध्य करते हैं| अगर ये नहीं होंगे तो हमें भगवान कभी भी नहीं मिलेंगे| अतः दुनिया वालो, दुःखी ना हों| भगवान को खूब प्रेम करो, प्रेम करो और पूर्ण प्रेम करो| हम को सभी कुछ मिल जायेगा| स्वयं प्रेममय बन जाओ|
.
अपना दुःख-सुख, अपयश-यश , हानि -लाभ, पाप-पुण्य, विफलता-सफलता, बुराई-अच्छाई, जीवन-मरण यहाँ तक कि अपना अस्तित्व भी सृष्टिकर्ता को बापस सौंप दो| उनके कृपासिन्धु में हमारी हिमालय सी भूलें, कमियाँ और पाप भी छोटे मोटे कंकर पत्थर से अधिक नहीं है| वे वहाँ भी शोभा दे रहे हैं| इस नारकीय जीवन से तो अच्छा है उस परम प्रेम में समर्पित हो जाएँ| वहाँ संतोषधन भी मिलेगा और आनंद भी मिलेगा| "प्रेम" ही भगवान का स्वभाव है|
.
भगवान के पास सब कुछ है पर एक चीज नहीं है जिसके लिए वे भी तरस रहे हैं, और वह है हमारा प्रेम| हम रूपया पैसा, पत्र पुष्प आदि जो कुछ भी चढाते हैं क्या वह सचमुच हमारा है? हम एक ही चीज भगवान को दे सकते हैं और वह है हमारा "प्रेम"| तो उसको देने में भी कंजूसी क्यों?
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२८ नवम्बर २०१९
कृपा शंकर
२८ नवम्बर २०१९
No comments:
Post a Comment