Friday, 26 December 2025

चित्त वृत्ति निरोध ------

 जब ह्रदय शांत और और आज्ञा चक्र जागृत होने लगता है तभी चित्त की वृत्तियों का निरोध होना आरम्भ होने लगता है|

चित्त स्वयं को दो रूपों ------ श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है|
वासनाएँ तो अति सूक्ष्म हैं जो पकड़ में नहीं आतीं, अतः ध्यान साधना का आरम्भ श्वास-प्रश्वास से होता है| श्वास-प्रश्वास पर ध्यान करते करते प्राण भी स्थिर होने लगते हैं और मन की वासनाएँ शांत होने लगती हैं क्योंकि चंचल प्राण ही मन है| भौतिक देह और मन के बीच की कड़ी भी प्राण ही है|
यह मार्ग सिर्फ उन पथिकों के लिए है जिन्हें प्रभु से परम प्रेम हैं और जिनके ह्रदय में एक गहन अभीप्सा है उन्हें उपलब्ध होने की| ऐसे पथिक ही टिक पते हैं इस मार्ग पर, अन्य सब भटक जाते हैं| जब ह्रदय में एक अभीप्सा यानि तड़फ होती है प्रभु को पाने की तो प्रभु एक सद्गुरु के रूप में स्वयं ही आ जाते हैं|
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा ये सब साथ साथ चलते हैं| प्रभु के प्रति तड़फ यदि बहुत गहरी हो अपने आप ही ये सब पीछे पीछे चलने लगते हैं|
प्रभु के प्रति प्रेम बहुत अधिक गहन हो तो ध्यान भी स्वयं होने लगता है| तब प्रभु ही आपको अपना उपकरण बना कर सब कुछ स्वयं करने लगते हैं| तब आप कर्ता नहीं रहते|
प्रथम अंतिम और एकमात्र आवश्यकता है प्रभु प्रेम की| बाकि सब गौण है|
आप में हृदयस्थ भगवान नारायण को नमन करते मैं आप सब के प्रति अपना अहैतुकी प्रेम और शुभ कामनाएँ व्यक्त करता हूँ| आप सब को मेरा प्रणाम| ॐ तत्सत्|
जयतु वैदिकीसंस्कृतिः जयतु भारतम् |
२७ दिसंबर २०१३

Thursday, 25 December 2025

मन में आ रहे फालतू और भटकाने वाले विचारों से ध्यान हटा कर भगवान में मन कैसे लगाएँ?

 (प्रश्न) : मन में आ रहे फालतू और भटकाने वाले विचारों से ध्यान हटा कर भगवान में मन कैसे लगाएँ?

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(उत्तर) : अपने चारों ओर की परिस्थितियों और वातावरण को हमें तुरंत बदलना पड़ेगा, अन्य कोई उपाय नहीं है। जो हम बनना चाहते हैं, उसी के अनुकूल परिस्थितियों और वातावरण का हमें निर्माण करना होगा, या वैसे ही वातावरण में जाकर रहना होगा। अच्छा साहित्य पढ़ें, अच्छे लोगों के साथ रहें, सात्विक भोजन लें और भोजन की मात्रा को कम करें।
नित्य नियमित ध्यान करें, और गीता का स्वाध्याय करें। श्रीमद्भगवद्गीता के अक्षरब्रह्मयोग (अध्याय ८) के स्वाध्याय और अभ्यास से बहुत लाभ होगा। बृहदारण्यकोपनिषद में याज्ञवल्क्य ऋषि ने गार्गी को भी इसका उपदेश दिया है।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२५ दिसंबर २०२३

Wednesday, 24 December 2025

भारत के लिए ये ५ जलडमरूमध्य स्वतंत्र और सुचारू अंतर्राष्ट्रीय-नौपरिवहन के लिए बहुत आवश्यक हैं-- मलक्का, बाब-अल-मंडेब, होरमुज, बास्फोरस और जिब्राल्टर। स्वेज़ और पनामा नहरों का चालू रहना भी बहुत अधिक आवश्यक है।

 भारत के लिए ये ५ जलडमरूमध्य स्वतंत्र और सुचारू अंतर्राष्ट्रीय-नौपरिवहन के लिए बहुत आवश्यक हैं-- मलक्का, बाब-अल-मंडेब, होरमुज, बास्फोरस और जिब्राल्टर। स्वेज़ और पनामा नहरों का चालू रहना भी बहुत अधिक आवश्यक है।

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समुद्रों में जो मालवाहक जहाज चलते हैं, उनका एक अंतर्राष्ट्रीय नियम होता है कि वे जिस देश में पंजीकृत होते हैं, उसी देश का ध्वज उन पर फहराया जाता है, और वे चलते-फिरते उसी देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। किसी भी समुद्री मालवाहक जहाज पर आक्रमण उस देश पर आक्रमण माना जाता है जिस देश का ध्वज उस जहाज पर फहराया हुआ है। यदि भारत के ध्वज-वाहक किसी भी मालवाहक जहाज पर कहीं भी आक्रमण होता है तो वह भारत पर आक्रमण ही माना जायेगा। भारत के ध्वज-वाहक जहाजों की रक्षा के लिए ही भारतीय नौसेना के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित दो युद्धपोत हर समय अदन की खाड़ी में गश्त लगाते रहते हैं। वहाँ अब तक सबसे बड़ा खतरा सोमालिया के समुद्री डाकुओं से था, अब यमन के ईरान समर्थित हूती विद्रोहियों से है। ये हूती विद्रोही शिया मुसलमान हैं, और उनका झगड़ा पिछले ५० वर्षों से वहाँ के सुन्नी मुसलमानों से चल रहा है। सोमालिया के समुद्री डाकू सब सुन्नी मुसलमान हैं, जिनका धंधा ही डकैती है। अभी दो दिन पहले ही भारत की आर्थिक सीमा (Exclusive Economic Zone) में भारत के ही एक Chemical Carrier (हजारों टन केमिकल रूपी माल के परिवाहक) जहाज पर आक्रमण एक बहुत ही गंभीर घटना है।
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आज से ६०-७० वर्षों पहले तक कोई जमाना था जब अदन (यमन की तत्कालीन राजधानी) के बाजार भारतीयों से भरे हुए थे। सारी बड़ी बड़ी दुकानें भारतीयों की थीं, और वहाँ का सारा व्यापार भारतीयों के हाथ में था। फिर एक दिन ऐसा आया जब वहाँ (इस्लामिक) क्रान्ति हुई और वहाँ के हिन्दू भारतीय व्यापारियों को अपना सब कुछ छोड़कर जो कपड़े वे पहिने हुये थे उन्हीं में प्राण बचाने के लिए भारत में भाग कर शरण लेनी पड़ी।
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जब हूती विद्रोहियों में और सऊदी अरब में युद्ध आरंभ हुआ था तब भारत सरकार वहाँ काम कर रहे सारे भारतियों को सुरक्षित रूप से बापस भारत ले आई थी। अब हूती विद्रोहियों ने बाब-अल-मंडेब से गुजर रहे सभी जहाजों पर आक्रमण आरंभ कर दिया है। यह विश्व-युद्ध की भूमिका है।
२४ दिसंबर २०२३

भविष्य में एक दिन ईसा मसीह के सारे अनुयायी -- सत्य-सनातन-धर्म को अपना लेंगे।

 आज रात्रि को मैं पूर्ण प्रयास करूंगा कि आज की पूरी रात्री परमात्मा के ध्यान में ही व्यतीत हो। मुझे पूर्ण विश्वास है कि भविष्य में एक दिन ईसा मसीह के सारे अनुयायी -- सत्य-सनातन-धर्म को अपना लेंगे। यह प्रक्रिया आरंभ भी हो गई है। भारत की सबसे अधिक हानि भी उन्हीं लोगों ने की है।

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मराठा सेनाओं ने मुगलों व अन्य सभी मुस्लिम शासकों को परास्त कर सारे भारत पर अधिकार कर हिन्दू पद पादशाही की स्थापना कर दी थी, लेकिन अंग्रेजों ने धोखे से उन्हें हराकर भारत की सत्ता पर अपना अधिकार कर लिया। भारत की सत्ता अंग्रेजों ने मराठों से ली थी, न कि मुस्लिम शासकों से। पंजाब में सिक्खों की रक्षा मराठा सेनापति रघुनाथ राव ने की थी। सन १७५८ में अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण के बाद सिखों की स्थिति अत्यंत कमजोर हो गई थी। मराठा सेना झांसी से बंगाल की ओर अपने विजय अभियान पर जा रही थी, लेकिन सिक्खों के मार्मिक अनुरोध के पश्चात पंजाब की ओर मुड़ गयीं और पंजाब पहुंच कर वहाँ के अफगान शासकों को हराया। रघुनाथ राव ने तैमूर शाह (अब्दाली के पुत्र) को पंजाब से बाहर खदेड़ा। उन्होंने स्वर्ण मंदिर (हरमंदिर साहिब) का पुनर्निर्माण करवाया, जो अफगानों द्वारा क्षतिग्रस्त हो गया था। इस अभियान से मराठों ने अटक तक अपना प्रभाव बढ़ाया।
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भारत को प्रेमपूर्वक हम "भारत माता" कहते हैं। अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ भारत माता -- अखंडता के सिंहासन पर बिराजमान होगी। सम्पूर्ण भारत से असत्य और अंधकार की शक्तियाँ पराभूत होंगी। हर हर महादेव !! महादेव महादेव महादेव !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ दिसंबर २०२५

Monday, 22 December 2025

जब तक मैं परमात्मा से दूर था ---

जब तक मैं परमात्मा से दूर था, यह जीवन अपने केंद्र-बिन्दु से बहुत दूर एक मरीचिका (Mirage) यानि दृष्टिभ्रम या एक झूठा प्रतिबिंब (false image) मात्र ही था। एक झूठी आशा के पीछे भाग रहा था। सत्य का बोध तो अभी हो रहा है। भगवान श्रीकृष्ण का गीता में यह आश्वासन एक नयी दृष्टि और बोध दे रहा है --

"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् - अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।
But if a man will meditate on Me and Me alone, and will worship Me always and everywhere, I will take upon Myself the fulfillment of his aspiration, and I will safeguard whatsoever he shall attain.
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मैं -- मैं नहीं रहा। जीवन एक सतत प्रक्रिया है, अब तो उनका हृदय छोड़कर अन्यत्र की कल्पना भी मृत्यु है। शिवोहं शिवोहं॥ अहं ब्रह्मास्मि॥ ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ दिसंबर २०२५

उस आभामंडल को ही अपना काम करने दें ---

 निरंतर परमात्मा के चिंतन से हमारे चारों और एक आध्यात्मिक आभामंडल का निर्माण हो जाता है। वह आभामंडल ही चुम्बकत्व की तरह उन सब चीजों को आकर्षित करेगा जो जीवन में सर्वश्रेष्ठ है। उस आभामंडल को ही अपना काम करने दें।

जीवन में किसी से भी कोई अनावश्यक बात न करें, और न ही अनावश्यक रूप से किसी से कोई मेलजोल रखें। प्रयास करें की मानसिक रूप से निरंतर किसी पवित्र मंत्र का जप होता रहे, जैसे प्रणव-मंत्र या तारक-मंत्र। यह भाव रखें कि स्वयं परमात्मा ही यह जप कर रहे हैं। जब भी समय मिले परमात्मा को समर्पित होकर कूटस्थ में उनका ध्यान करें। हमारा जीवन धन्य होगा। हरिः ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
१८ दिसंबर २०२५

प्रकाश का अभाव ही अंधकार है ---

"प्रकाश का अभाव ही अंधकार है। चारों ओर छाये हुए असत्य के अंधकार को मिटाने के लिए हमारा सबसे बड़ा योगदान यही हो सकता है कि हम परमात्मा के प्रकाश को प्रकट कर उसका निरंतर विस्तार करें।"
सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में परमात्मा का ध्यान करो, और उनकी चेतना में निरंतर हर समय बने रहो। यही सबसे बड़ी सेवा है जो हम समष्टि के लिए कर सकते हैं।
हजारों साधनायें और हजारों मंत्र हैं. कौन सी साधना करें? कौन से मंत्र का जप करें?
यह भगवान पर छोड़ दें कि वे किस विधि से उपलब्ध होना चाहते हैं। यह थोड़ा कठिन कार्य है, लेकिन भगवान से प्रार्थना कर के उन पर छोड़ दे। भगवान से उत्तर मिलेगा, निश्चित रूप से मिलेगा, बस हृदय में प्रेम और एक घनीभूत अभीप्सा होनी चाहिए। वे बड़े भाग्यशाली हैं जो मेरी इस बात को समझ सकते हैं। मैं उन्हें नमन करता हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ दिसंबर २०२५

Sunday, 21 December 2025

उत्तरायण की शुभ कामनाएँ ---

 उत्तरायण की शुभ कामनाएँ ---

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खगोलीय दृष्टि से (ज्योतिष के हिसाब से नहीं) आज (२२ दिसंबर २०२२) से पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में उत्तरायण (Winter Solstice २०२२) का आरंभ हो गया है। बीते हुए कल की और आज की रात्रियाँ वर्ष २०२२ की सबसे लंबी रात्रियाँ थीं और हैं। कल से रात्रियाँ छोटी और दिन बड़े होने आरंभ हो जाएंगे। यह एक खगोलीय घटना है, (जब सूर्य खगोलीय गोले में खगोलीय मध्य रेखा के सापेक्ष अपनी उच्चतम अथवा निम्नतम अवस्था में भ्रमण करता है) जो वर्ष में दो बार होती है। उत्तरी गोलार्ध में यह शीतकाल का मध्य बिन्दु है। दक्षिणी गोलार्ध में इस से विपरीत होता है।
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वर्तमान में चल रहा सर्दियों का मौसम, आध्यात्मिक साधना के लिए बहुत अनुकूल है। न तो पंखे या कूलर की आवाज़, और न कोई शोरगुल है। प्रकृति भी बड़ी शांत है। ऐसे में अपने भौतिक और मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखें, और भगवान ने जो २४ घंटों का समय दिया है, उसका १० प्रतिशत भाग तो बापस भगवान को बापस दें। सारा मार्गदर्शन - गीता आदि ग्रन्थों में है, जिनका स्वाध्याय करें। भगवान से प्रेम होगा तो वे स्वयं सारा मार्गदर्शन और सहायता करेंगे। इस मार्ग में कोई short cut नहीं है। सारी प्रगति और सफलता -- भगवान के अनुग्रह पर निर्भर है।
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मेरे नवरत्न तो भगवान स्वयं हैं। मैं न तो कोई अंगूठी पहनता हूँ, न कोई नवरत्न का कड़ा, या न कोई कंठीमाला। मेरे एकमात्र रत्न भगवान स्वयं हैं, जो निरंतर मेरे हृदय में रहते हैं। एक क्षण के लिए भी वे इधर-उधर नहीं होते। वे ही मेरी शोभा हैं। मेरा हृदय कूटस्थ सूर्यमंडल है, न कि यह भौतिक हृदय। कूटस्थ चैतन्य ही मेरा जीवन है। उस से च्युत होना ही मृत्यु है। भगवान की विस्मृति नर्क है, और उन की स्मृति ही स्वर्ग है। साधना का और साधक होने का भ्रम मिथ्या है।
आप सब को शुभ कामनाएँ और नमन !!
कृपा शंकर
२२ दिसंबर २०२२

Tuesday, 16 December 2025

परमात्मा को निश्चित रूप से हम कैसे उपलब्ध हों?

 (प्रश्न) : परमात्मा को निश्चित रूप से हम कैसे उपलब्ध हों?

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(उत्तर) : ये पंक्तियाँ लिखने की प्रेरणा मुझे जगन्माता से मिल रही है जो प्राण रूप में समस्त सृष्टि को धारण किये हुए हैं। परमात्मा की दृष्टि में हम वही हैं जो स्वयं की दृष्टि में हैं। हमें पता है कि हम कहाँ खड़े हैं। हम दुनियाँ को धोखा दे सकते हैं, लेकिन स्वयं को नहीं। छल-कपट, लोभ और अहंकार ने हमें परमात्मा से पृथक कर रखा है। इन रिपुओं से तो मुक्त हमें होना ही पड़ेगा। जब तक हम स्वयं को छल-कपट और लोभ-अहंकार से मुक्त नहीं कर लेते तब तक परमात्मा को भूल जाइये।
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व्यावहारिक रूप से हमारी दो साँसों के मध्य में यानि दो साँसों के मध्य में परमात्मा हैं। हम सांस छोड़ते हैं और लेते हैं, हम सांस लेते और छोड़ते हैं, उनके मध्य में कुछ पलों के लिए रुकते हैं। वह दो साँसों के मध्य का संधिकाल कुंभक कहलाता है। यह कुंभक यानि संधिकाल परमात्मा को पूर्णतः समर्पित हो। इस कुंभक का क्रमशः सतत् विस्तार हो और इस समय श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय में बताई हुई विधि से मूर्धा में प्रणव का मानसिक जप हो। मेरुदण्ड उन्नत रहे, ठुड्डी भूमि के समानान्तर, दृष्टिपथ भ्रूमध्य में, जिह्वा को ऊपर की ओर मोड़कर तालु से सटा कर रखें।
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फिर सांस कौन ले रहा है? हमारी हर सांस स्वयं परमात्मा ले रहे हैं। यदि आप ले रहे हो तो सांसें रोक कर दिखाइये। हर सांस के साथ अजपा-जप करें। यह एक वैदिक साधना है जिसे वेदों में हंसवतीऋक कहा गया है। इसे हंसःयोग भी कहते हैं। यह गोपनीय नहीं है। जगत्गुरु भगवान श्रीकृष्ण को, या दक्षिणामूर्ति रूप में भगवान शिव को गुरु मानकर, इसका अभ्यास कर सकते हैं।
गोपनीय तो एक दूसरी विद्या है जिसका संकेत भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय के २९वें श्लोक में किया है --
"अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥४:२९॥"
इसका रहस्य बताने का अधिकार केवल एक अधिकृत सद्गुरु को ही है, जो पात्रता देखकर शिष्य को अपने सामने बैठाकर इसका ज्ञान प्रदान करता है।
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"ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥"
अब केवल ब्रह्मकर्म की बात करेंगे। भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई भी कामना है तो भगवान ने इसे व्यभिचार की संज्ञा दी है। भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत में दो बार, दो अलग-अलग स्थानों पर, दो सगे भाइयों -- युधिष्ठिर व अर्जुन को "अव्यभिचारिणी भक्ति" का उपदेश दिया है। जिस के जीवन में यह "अव्यभिचारिणी भक्ति" और "अनन्य योग" फलीभूत हो जाते हैं, उसे इसी जीवन में भगवत्-प्राप्ति हो सकती है।
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महाभारत के अनुशासन पर्व में भगवान श्रीकृष्ण ने महाराजा युधिष्ठिर को तंडि ऋषि कृत "शिवसहस्त्रनाम" का उपदेश दिया है, जो भगवान श्रीकृष्ण को उपमन्यु ऋषि से प्राप्त हुआ था। उसका १६६वां श्लोक है --
"एतद् देवेषु दुष्प्रापं मनुष्येषु न लभ्यते।
निर्विघ्ना निश्चला रुद्रे भक्तिर्व्यभिचारिणी॥"
(यहाँ "निर्विघ्ना" और "निश्चला" शब्दों का भी प्रयोग हुआ है)
महाभारत के भीष्म पर्व में कुरुक्षेत्र की रण-भूमि में भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को जो भगवद्गीता का उपदेश देते हैं, उसके १३वें अध्याय का ११वां श्लोक है --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
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भगवान श्रीकृष्ण ने अनन्ययोग के लिए अव्यभिचारिणी भक्ति, एकान्तवास के स्वभाव, और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि का होना बताया है।सत्यनिष्ठा पूर्वक भगवान के सिवा अन्य कुछ भी प्रिय न लगे, वह अव्यभिचारिणी भक्ति है। ऐसे नहीं कि जब सिनेमा अच्छा लगे तब सिनेमा देख लिया, नाच-गाना अच्छा लगे तब नाच-गाना कर लिया, गप-शप अच्छी लगे तब गप-शप कर ली; और भगवान अच्छे लगे तब भगवान की भक्ति कर ली। ऐसी भक्ति व्यभिचारिणी होती है। "सिर्फ भगवान ही अच्छे लगें, भगवान के सिवा अन्य कुछ भी अच्छा न लगे, निरंतर भगवान का ही स्मरण रहे वह "अव्यभिचारिणी भक्ति" है।"
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इस विषय पर और नहीं लिखूंगा अन्यथा लेख बहुत अधिक लंबा हो जाएगा। इसका समापन यहीं कर रहा हूँ। हमारा लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति है। हम परमात्मा का बोध इसी जन्म में कर सकते हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ नवंबर २०२५

हे प्रभु, स्वयं को मुझ में व्यक्त करो, आप और मैं एक हैं ---

 हे प्रभु, स्वयं को मुझ में व्यक्त करो, आप और मैं एक हैं ---

(O Divine, Reveal Thyself unto me. Thou and I art one.)​.
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परमात्मा स्वयं हमारे शरीर महाराज को माध्यम बनाकर साँसें ले रहे हैं। पूरा ब्रह्मांड, यानि समस्त सृष्टि ही हमारा शरीर है। यह पक्का प्रमाण है कि वे हमारे साथ हैं। जब साँस अंदर आती है तब वे स्वयं हमारे में खिंचे चले आते हैं। जब तक साँस भीतर है, तब तक वे हमारे शरीर महाराज में हैं। जब साँस बाहर निकलती है तब हम उन में चले जाते हैं। यह अंदर-बाहर होने का खेल पता नहीं, भगवान कितने जन्मों से खेल रहे हैं !! जो वे हैं, वह ही हम हैं।
जब साँस पूरी तरह बाहर निकल जाती है उस अवस्था को बाह्य कुंभक कहते है। इस अवधि को सहज रूप से बढ़ाते रहें। किसी तरह का बल-प्रयोग न करें। उस अवस्था में मूर्धा में प्रणव मंत्र का जप करते रहें। जब सांसें बाहर जाती हैं, और भीतर आती हैं, तब हम अजपा-जप "सो -- हं" मंत्र के साथ करते हैं। लेकिन गुरु की आज्ञा से मैं इसका उल्टा जप "हं -- सः" करता हूँ। अर्ध या पूर्ण खेचरी मुद्रा में मूर्धा में ओंकार का मानसिक जप -- "नादानुसंधान" कहलाता है। यह बहुत बड़ी साधना है जिसका महत्व इतना अधिक है कि बताना बहुत कठिन है।
मूलाधार चक्र में घनीभूत प्राण-तत्व कुंडलिनी को जागृत कर गुरु-प्रदत्त विधि से मंत्र शक्ति द्वारा मेरुदंड के चक्रों में संचलन "क्रिया योग" है। इसमें एक ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय सद्गुरु का मार्गदर्शन अनिवार्य है। बिना गुरु के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन के यह साधना न करें, अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि ही हो सकती है।
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किसी भी साधना का एकमात्र उद्देश्य -- हमें अपने आत्म-स्वरूप में प्रतिष्ठित कराना है, न कि कुछ सांसारिक उपलब्धियाँ प्राप्त करवाना। हम परमात्मा की दृष्टि में क्या हैं? इसी का महत्व है। जो हम प्राप्त करना चाहते हैं वह तो हम स्वयं ही हैं। स्वयं से परे कुछ है ही नहीं।
हे प्रभु, स्वयं को मुझ में व्यक्त करो (Reveal Thyself unto me. Thou and I art one.)।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ नवंबर २०२५

आध्यात्मिक साधना वही करें जो हमें वीतराग बनाये ---

 आध्यात्मिक साधना वही करें जो हमें वीतराग बनाये ---

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लौकिक जीवन में वही काम करें जो राष्ट्रहित में हो। आध्यात्म में वही साधना करें जिसमें परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति हो। क्या सही है और क्या गलत है, यह अपने हृदय से पूछें। हृदय कभी गलत उत्तर नहीं देगा। मन हमें धोखा दे सकता है, लेकिन हृदय नहीं। झूठी और बनावटी बातों में आकर दुष्टों के चक्कर में न फँसे। हमारा सबसे बड़ा शत्रु हमारा लोभ और अहंकार है। आध्यात्मिक साधना वही करें जो हमें वीतराग बनाये। वीतरागता का अर्थ है -- राग, द्वेष और अहंकार से मुक्ति। वीतरागता ही हमें स्थितप्रज्ञ बनाकर परमात्मा के साथ एक कर सकती है। हमारी हरेक सांस में परमात्मा हो, हमारे हरेक कार्य के कर्ता परमात्मा हों।
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मैं तो आध्यात्मिक साधना भी वही करता हूँ जिससे राष्ट्र का यानि समष्टि का कल्याण होता है। मैकाले की शिक्षा पद्धति को बदलने का समय आ गया है। परमात्मा की, और धर्म की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारत में हुई है। अतः भारत का उत्थान ही सत्य सनातन धर्म का उत्थान है; और सत्य-सनातन-धर्म का उत्थान ही भारत का उत्थान है। इस जीवन का अवशिष्ट भाग परमात्मा को पूर्णतः समर्पित है। जीवन में जो भी भूलें कीं, उनकी पुनरावृति न हो। भारत एक धर्मनिष्ठ यानि सत्यनिष्ठ राष्ट्र होगा। धर्म की जय, और अधर्म का पराभव होगा।
ॐ तत् सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ नवंबर २०२५

"कूटस्थ" शब्द का अर्थ? ---

 "कूटस्थ" शब्द का अर्थ? ---

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यह शब्द "कूटस्थ", भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रयुक्त शब्द है जिसे उनकी परमकृपा से ही समझा जा सकता है। "कूटस्थ" -- कालव्यापी अविनाशी परम तत्व को कहते हैं, जो सर्वत्र है लेकिन कहीं भी नहीं है। परमात्मा का यह सारा मायाजाल ही कूटस्थ है। एक सूक्ष्मतम जीवाणु से लेकर ब्रह्माजी तक का नाश हो सकता है लेकिन कूटस्थ का कभी नाश नहीं हो सकता। अमरकोष के अनुसार -- "कालव्यापी स कूटस्थ:" अर्थात जो काल को व्याप्त किए हुए है, वह त्रिकालकर्ता -- भूत, भविष्य, और वर्तमान का नियंत्रक "कूटस्थ" है। समष्टि में व्याप्त चैतन्य सत्ता ही "कूटस्थ" है। सरलतम स्पष्ट शब्दों में अक्षरब्रह्म ही कूटस्थ है।
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मुझे आदेश हुआ था कि मैं कूटस्थ में परमात्मा का ध्यान करूँ। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया। फिर मुझे आदेश हुआ कि मैं भ्रूमध्य में परमात्मा का ध्यान करूँ। लेकिन परमात्मा शब्द के अर्थ को समझना मेरी बौद्धिक क्षमता से परे था। जैसा भी जो भी समझ में आया उसके अनुसार भ्रूमध्य में परमात्मा का ध्यान करना आरंभ किया। एक दिन ध्यान करते करते विद्युत की आभा के समान एक ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट हुई। वह ज्योति समस्त ब्रह्मांड में फैल गयी। उस ज्योति की आभा सर्वत्र थी, सब कुछ यानि सारा अस्तित्व उस ज्योति में था। उससे परे कुछ भी नहीं था। अपना दर्शन देकर वह ज्योति लुप्त हो गयी।
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तत्पश्चात मुझे आदेश हुआ कि उस ज्योति का ही ध्यान करूँ। कुछ दिखता नहीं था, लेकिन उस आदेश की पालना में भ्रूमध्य में उसी सर्वव्यापी ज्योति का ध्यान आरंभ किया। धीरे धीरे कई दिनों या कई महीनों में जाकर उस सर्वव्यापी ज्योति का दर्शन होने लगा। उसमें से एक ध्वनि भी निःसृत होने लगी जो प्रणव की ध्वनि थी। उस सर्वव्यापी ज्योति का दर्शन और उस ध्वनि का निरंतर श्रवण ही मेरी साधना हो गयी। उसे ही मैं "कूटस्थ" में परमात्मा का ध्यान कहता हूँ। वास्तव में वह ज्योतिर्मय कूटस्थ ही परमात्मा है। उसका केंद्र भी समय के साथ बदल गया। पहले वह भ्रूमध्य से सहस्त्रारचक्र में आया, फिर सहस्त्रारचक्र से भी ऊपर परमात्मा की अनंतता में और अब तो उस अनंतता से भी परे स्थित हो गया है। उसे ही मैं "परमशिव" और "पुरुषोत्तम" कहता हूँ।
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इस विषय पर इस से अधिक कुछ भी लिखने की मेरी सामर्थ्य नहीं है। जितना लिखने का मुझे आदेश और अनुमति थी, व जितना लिखने की मेरी सामर्थ्य थी वह लिख दिया है। इससे अधिक लिखने की क्षमता इस समय मुझमें नहीं है। भविष्य में कभी अनुमति व आदेश हुआ तो इस विषय पर और भी लिखूंगा।
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आप सब में भगवान श्रीकृष्ण को नमन जिनकी परम कृपा से ही मैं इतना समझ पाया हूँ। श्रीमद्भगवद्गीता में जहाँ जहाँ भी "कूटस्थ" शब्द का प्रयोग हुआ है, अपने पूर्ण विवेक के प्रकाश में उन संदर्भों का स्वाध्याय कीजिये। गीता के दूयारे अध्याय के अंत में एक शब्द -- "ब्राह्मी-स्थिति" का प्रयोग हुआ है उसे ही मैं कूटस्थ-चैतन्य कहता हूँ। यह ब्राह्मी-स्थिति ही कैवल्यपद है।
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जब तक संतुष्टि न मिले, तब तक भगवान का खूब ध्यान करें। उन्हें अपनी स्मृति में हर समय रखें। जब भी समय मिले भगवान का स्मरण, चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करें। भगवान कहते हैं --
""यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् -- इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
अर्थात् -- हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥
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अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति ---
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥"
"वायुर्यमोग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च
नमो नमस्तेस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोपि नमो नमस्ते॥११:३९॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥" (गीता)
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय !! महादेव महादेव महादेव !!
कृपा शंकर
२६ नवंबर २०२५

सबसे बड़ा तंत्र, और सबसे बड़ा मन्त्र ---

 सबसे बड़ा तंत्र, और सबसे बड़ा मन्त्र ---

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तंत्र भी सत्य है और मंत्र भी सत्य है। अनेक तंत्र हैं, और अनेक मंत्र हैं। प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि कौन सा तंत्र, और कौन सा मंत्र सर्वोच्च है? ईश्वर प्रदत्त विवेक और निजानुभूतियों के प्रकाश में जिस निर्णय पर मैं पहुंचा हूँ, वही यहाँ लिख रहा हूँ, कोई आवश्यक नहीं कि कोई मेरे विचार से सहमत हो। असहमति का अधिकार सबको है।
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(१) सबसे बड़ा तंत्र :--- "आत्मानुसंधान" सबसे बड़ा तंत्र है। इसे अजपा-जप भी कहते हैं। यह आत्मा की एक वैदिक साधना है। मेरी खूब रुचि इस विषय में रही है। इस विषय पर खूब स्वाध्याय भी किया है और अभ्यास भी। इस का खूब अनुभव है।
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(२) सबसे बड़ा मंत्र :--- "प्रणव" (ॐ) सब से बड़ा मंत्र है। इस विषय पर खूब स्वाध्याय भी किया है और खूब अभ्यास भी। प्रणव तो साक्षात परमात्मा है। प्रणव के बाद सबसे अधिक महत्वपूर्ण मंत्र कोई है तो वह तारक मंत्र (रां) है। उसके बाद ही अन्य सब मंत्र हैं।
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(३) साधना वह ही करनी चाहिए जो हमें परमात्मा का साक्षात्कार कराती हो। भोग प्राप्ति की साधनाएं समय की बर्बादी हैं। वे हमें हमारे लक्ष्य परमात्मा से दूर ले जाती हैं।
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हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ नवंबर २०२५

परमात्मा की उच्चतम अनुभूति हमें "परमशिव" या "पुरुषोत्तम" के रूप में होती है। लेकिन कूटस्थ ब्रह्म के रूप में तो वे हर समय हमारे समक्ष हैं ---

परमात्मा की उच्चतम अनुभूति हमें "परमशिव" या "पुरुषोत्तम" के रूप में होती है। लेकिन कूटस्थ ब्रह्म के रूप में तो वे हर समय हमारे समक्ष हैं ---
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श्रीमद्भगवद्गीता में 'कूटस्थ' शब्द का प्रयोग अनेक बार कर के भगवान ने अपना परिचय भी स्वयं दे दिया है। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने को पाने का मार्ग भी बता दिया है। भक्ति की गहनता में दिखाई देने वाली 'ज्योति' और उसके साथ साथ सुनाई देने वाला 'नाद' ही कूटस्थ ब्रह्म की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति हैं।
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हमारा भ्रूमध्य 'कूटस्थ केंद्र' है। वहीं हमें 'ज्योति' और 'नाद' के रूप में परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। यही परमात्मा को पाने का सरलतम उपाय इस वर्तमान युग में है। परमात्मा की परम कृपा से ही मैं इसे समझ पा रहा हूँ।
अब जब साक्षात् परमात्मा की ही चर्चा कर ली है तो उनसे अन्य किसी भी विषय पर ध्यान -- आत्महत्या के समान है। भगवान स्वयं ही हमारी आत्मा हैं। उनसे पृथकता हमारे लिए आत्महत्या है। हम भगवान के अमृतपुत्र और उनके साथ एक हैं, और सदा एक ही रहेंगे। यह अनुभूति हमारे ऊपर परमात्मा का एक विशेष अनुग्रह है।
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श्रीमद्भगवद्गीता का सार गीता के पंद्रहवें अध्याय "पुरुषोत्तम योग" में है जिसे भगवान की कृपा से ही समझा जा सकता है। उसी अध्याय का सौलहवां श्लोक कहता है --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
अर्थात् - इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥
इसकी व्याख्या यही हो सकती है कि सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर नाशवान् हैं, केवल कूटस्थ ही अविनाशी है। स्वनामधन्य भगवान आचार्य शंकर आदि महान आचार्यों के विस्तृत भाष्यों का भी यही सार है।
कूट नाम माया का है, जिसके वञ्चना, छल, कुटिलता आदि पर्याय हैं। इस प्रकार से जो माया आदि में स्थित है, वह कूटस्थ है। संसार का बीज और अनंत होने के कारण वह कूटस्थ अक्षर कहा जाता है। उसे ही हम अक्षर ब्रह्म कहते हैं।
अविनाशी ईश्वर ही उत्तम पुरुष है, जो सब का भरण-पोषण करता है। वही परमात्मा है।
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और भी अधिक गहराई में जाते हैं तो पाते हैं कि परमात्मा -- क्षर से अतीत, और अक्षर से भी उत्तम हैं। इसीलिए वे "पुरुषोत्तम" हैं। उनकी आभा ही उनके चारों ओर छाया एक मण्डल है जो सूर्य की तरह प्रकाशमान है। उस कूटस्थ सूर्य-मण्डल में वे बिराजमान हैं। उन पुरुषोत्तम का ध्यान ही उनकी भक्ति है। उनकी ओर निहार कर ही मैं कृतकृत्य हुआ। वे पुरुषोत्तम मुझे अपने साथ एक कर के कृतार्थ करें। किसी आकांक्षा का जन्म ही न हो।
ॐ तत् सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवंबर २०२५

आध्यात्मिक दृष्टि से मैं तृप्त और संतुष्ट हूँ ---

आध्यात्मिक दृष्टि से मैं तृप्त और संतुष्ट हूँ। यहाँ से मन भर गया है। अब केवल परमात्मा के महासागर में गहरी डुबकी लगाकर स्वयं को विलीन करने का काम बाकी है। यह महासागर ऊर्ध्व में है, जिसका रंग धवल यानि श्वेत है। इसकी स्थिति चिदाकाश यानि चित्त रूपी आकाश से भी परे है। वहाँ का गुरुत्वाकर्षण भी उल्टा है। वह ऊपर की ओर ही खींचता है, नीचे की ओर नहीं। हमारी कामनाएँ और आकाक्षाएँ हमें अधोगामी बना देती हैं। अन्यथा हमारी स्वाभाविक गति ऊर्ध्व में है। वही क्षीरसागर है, जहां भगवान नारायण का निवास है। वहाँ प्रकाश ही प्रकाश है, कोई अंधकार नहीं।

ॐ तत् सत् !!ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवम्बर २०२५

आज गीता जयंती है। सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ।

 आज गीता जयंती है। सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ।

महाभारत के भीष्मपर्व में कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को -- कर्म, भक्ति, और ज्ञान -- इन तीन विषयों पर जो उपदेश दिया वह श्रीमद्भगवद्गीता कहलाता है जिसे हम संक्षेप में गीता कहते हैं। इन तीन विषयों में ही उन्होने सारे सनातन धर्म को समाहित कर लिया है। गीता -- भारत का प्राण है। इसमें सारे उपनिषदों का सार है। ईश्वर के साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति के लिए इसमें सारा मार्ग-दर्शन है।
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गीता को समझना सभी के लिए संभव नहीं है। इसकी एक सीमा है। ज्ञान और भक्ति की बातें वे ही समझ सकते हैं जिनमें सतोगुण प्रधान है। कर्मयोग को वे ही समझ सकते हैं जिनमें रजोगुण प्रधान है। जिनमें तमोगुण प्रधान है, वे गीता को नहीं समझ सकते। वे लोग सब उल्टे-सीधे उपदेश देते हैं।
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गीता का सार -- "शरणागति द्वारा परमात्मा को समर्पण" है।
भगवान कहाँ है? भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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भगवान का भक्त कभी नष्ट नहीं होता है, यह भगवान का स्पष्ट आश्वासन है।
भगवान कहते हैं --
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
अर्थात् - "यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है॥"
" हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता॥"
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अब और क्या लिखूँ? पूरी गीता ही ज्ञान का भंडार है। भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में स्वयं का पूर्ण समर्पण करता हूँ। सभी पर भगवान की कृपा बनी रहे।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ दिसंबर २०२५

निराश्रयं माम् जगदीश रक्षः॥

 निराश्रयं माम् जगदीश रक्षः॥

मैं जहां भी हूँ, जैसे भी हूँ, मेरा पूर्ण समर्पण परमात्मा के प्रति है। मेरा एकमात्र आधार और आश्रय भगवान स्वयं हैं, अन्यथा मैं निराश्रय हूँ।
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"ॐ सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे। तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नम:॥"
"कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने, प्रणत क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:॥"
"वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। देवकीपरमानन्दं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्॥"
"वंशी विभूषित करा नवनीर दाभात्, पीताम्बरा दरुण बिंब फला धरोष्ठात्।
पूर्णेन्दु सुन्दर मुखादर बिंदु नेत्रात्, कृष्णात परम् किमपि तत्व अहं न जानि॥"
"नमो ब्रह्मण्य देवाय गो ब्राह्मण हिताय च, जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः॥"
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्। यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्॥"
"कस्तुरी तिलकम् ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम् ,
नासाग्रे वरमौक्तिकम् करतले, वेणु करे कंकणम्।
सर्वांगे हरिचन्दनम् सुललितम्, कंठे च मुक्तावलि,
गोपस्त्री परिवेष्ठितो विजयते, गोपाल चूड़ामणी॥"
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हे प्रभु, अपने साथ एक करो। जब आप ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं। आपके बिना मेरा कोई आश्रय नहीं है।
"अग्रे कुरूनाम् अथ पाण्डवानां दुःशासनेनाहृत वस्त्रकेशा।
कृष्णा तदाक्रोशदनन्यनाथ गोविंद दामोदर माधवेति॥
श्रीकृष्ण विष्णो मधुकैटभारे भक्तानुकम्पिन् भगवन् मुरारे।
त्रायस्व माम् केशव लोकनाथ गोविंद दामोदर माधवेति॥"
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हरे मुरारे मधुकैटभारे, गोबिंद गोपाल मुकुंद माधव।
यज्ञेश नारायण कृष्ण विष्णु, निराश्रयं माम् जगदीश रक्षः॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!

ईश्वर की कृपा से सरल से सरल भाषा में मैं भगवान की भक्ति, आध्यात्मिक साधना और ब्रह्मविद्या पर अनेक लघु लेख लिख पाया

ईश्वर की कृपा से सरल से सरल भाषा में मैं भगवान की भक्ति, आध्यात्मिक साधना और ब्रह्मविद्या पर अनेक लघु लेख लिख पाया। ब्रह्मविद्या को ही को उपनिषदों में "भूमा" कहा गया है, जिसे दर्शन शास्त्रों में "वेदान्त" भी कहते हैं। जो मैं नहीं लिख पाया वह मेरी सीमित बुद्धि की समझ से परे था।

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इसके अतिरिक्त मैंने लिखा है कि ऊंचे से ऊंचा तंत्र -- "आत्मानुसंधान" है, जिसे हंसःयोग और अजपाजप भी कहते हैं। ऊंचे से ऊंचा और बड़े से बड़ा मंत्र -- प्रणवमंत्र "ॐ" है। लगभग उतना ही प्रभावी -- तारकमन्त्र "रां" भी है। बड़े से बड़ा और ऊंचे से ऊंचा योग -- श्रीमद्भगवद्गीता का "पुरुषोत्तम योग" है जिसे स्वयं के पुरुषार्थ से नहीं, बल्कि ईश्वर की कृपा से ही समझा जा सकता है। जो "पुरुषोत्तम" हैं, वे ही "परमशिव" हैं। दोनों में कोई भेद नहीं हैं।
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साधना में कुछ सहायक बीजमंत्र जैसे "ऐं" "ह्रीं" "श्रीं" "क्लीं" आदि भी हैं जिनकी चर्चा यहाँ करना उचित नहीं है। वे किन्हीं सद्गुरु के मार्गदर्शन में ही जपे जाते हैं, क्योंकि उनमें भटकाव का भय है। सर्वश्रेष्ठ भक्ति गीता में बताई हुई "अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति" है, जो अतुल्य और अनुपम है। ऊंची से ऊंची साधना -- आत्मा की साधना है। नित्य नियमित स्वाध्याय के लिये सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ "श्रीमद्भगवद्गीता" है जो उपनिषदों का सार है। बड़े से बड़े गुरु "जगद्गुरू भगवान श्रीकृष्ण" हैं, शिवरूप में वे ही "दक्षिणामूर्ति" हैं।
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मेरी साधना -- प्राण-क्रिया और उपनिषदों व श्रीमद्भगवद्गीतानुसार समर्पण द्वारा परमात्मा का ध्यान है। इनके अतिरिक्त मुझे अन्य कुछ भी नहीं मालूम। यह जीवन जैसा भी परमात्मा ने दिया था, वैसा ही परमात्म्ना को समर्पित हैं। मेरे पास लिखने के लिये और कुछ भी नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ दिसंबर २०२५