जो साधक कोई साधना नहीं करता, सिर्फ प्रभावशाली बातें ही करता है, वह संसार को तो मूर्ख बना सकता है, लेकिन भगवान को नहीं। वह अपने अहंकार को ही तृप्त कर रहा है, अपनी आत्मा को नहीं। आत्मा की अभीप्सा, परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति से ही तृप्त होती है, जिस के लिए उपासना/साधना करनी पड़ती है।
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हमारा सारा शास्त्रों का ज्ञान, लिखने व बोलने की प्रभावशाली कला, -- निरर्थक और महत्वहीन है, यदि व्यवहारिक जीवन में कोई आध्यात्मिक साधना/उपासना नहीं है। जठराग्नि को तृप्त करने के लिए कुछ आहार लेना ही पड़ता है, भोजन की प्रशंसा सुनकर किसी का पेट नहीं भरता। बड़ी-बड़ी बातों से तृप्ति नहीं मिलती, तृप्ति -- प्रेम, समर्पण और उपासना से ही मिलती है।
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जो चेले से उपासना नहीं करा सकता, वह गुरु भी क्या गुरु है? गुरु ऐसा हो जो चेले को नर्ककुंड से बलात् निकाल कर अमृतकुंड में फेंक दे।
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जब हम अग्नि के समक्ष बैठते हैं तो ताप की अनुभूति होती है, वैसे ही परमात्मा के समक्ष बैठने से उनका अनुग्रह मिलता ही है। प्रभु के समक्ष हमारे सारे दोष भस्म हो जाते हैं। परमात्मा का ध्यान निरंतर तेलधारा के सामान होना चाहिए। तेल को एक पात्र से दूसरे में डालते हैं तो उसकी धार खंडित नहीं होती, वैसे ही हमारी साधना भी अखंड होनी चाहिए।
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इस सृष्टि में निःशुल्क कुछ भी नहीं है। हर चीज की कीमत चुकानी पडती है। भगवान भी परमप्रेम, अनुराग और समर्पण से मिलते हैं, इनके बिना नहीं। यह भगवान को पाने का शुल्क है। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
28 अप्रेल 2021
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