Monday, 28 April 2025

अनन्य भक्ति योग व उपासना ---

 अनन्य भक्ति योग व उपासना ---

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मैं अपने सबसे अधिक प्रिय विषय पर लिख रहा हूँ। मेरा सर्वाधिक प्रिय विषय है -- "अनन्य भक्ति योग"। परमात्मा की अनन्य भक्ति को ही "अव्यभिचारिणी भक्ति" कहते हैं। हम परमात्मा के साथ अनन्य बनें, इसी की उपासना करें। अपने पूरे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) को लगा कर परमात्मा में ही निरंतर रमण और निवास करें। यह एक ऐसा विषय है जो हरिःकृपा से ही समझ में आ सकता है। परमात्मा को कौन प्रिय है और कैसे उनकी कृपा प्राप्त होती है? इसका उत्तर भगवान ने गीता में अनेक स्थानों पर दिया है।
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आचार्य शंकर के अनुसार -- "अचिंत्य और कूटस्थ परमात्मा को बुद्धि का विषय बनाकर, तैलधारा के तुल्य दीर्घकाल तक पूरे मन से समभाव से उस में स्थित रहने के अभ्यास को उपासना कहते हैं।"
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यह विषय उसी के समझ में आ सकता है जिस पर भगवान की विशेष कृपा हो। भगवान को प्रेम करने से ही उनकी कृपा प्राप्त हो सकती है। यथासंभव अधिकाधिक भक्ति (भगवान से परम प्रेम) करें।
इस से अधिक कहने को मेरे पास कुछ भी नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ अप्रेल २०२४ . पुनश्च: --- थोड़ा चिंतन कीजिए तब समझ में आयेगा कि "अनन्य" का अर्थ क्या है| गहराई में जाने के लिए वेदान्त के दृष्टिकोण से विचार कीजिए|
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
अर्थात् अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ||
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्| साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः||९:३०||"
अर्थात् अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है, तो उसको साधु ही मानना चाहिये| कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है|
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति| कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति||९:३१||"
अर्थात् हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है| तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता||

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