मेरी उपासना और मेरा योग ---
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जैसे सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखाई देता है, वैसे ही मुझ अकिंचन को भी राम जी के सिवाय अब अन्य कुछ भी दिखाई नहीं देता। राम जी ही मेरा बल हैं, और वे ही मेरी संपत्ति हैं। वे रामजी ही यह "मैं" बन गए हैं। अब मैं स्वयं ही यह सृष्टि हूँ, और स्वयं ही इस सृष्टि का अनन्य चक्रवर्ती सम्राट हूँ।
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मैं ध्यान के जिस ऊनी आसन पर पद्मासन में बैठा हूँ, वह मेरी राजगद्दी यानि मेरा सिंहासन है। दूर से दूर सूक्ष्म जगत में जहाँ तक मेरी कल्पना जाती है, वह सब मेरा साम्राज्य है। मैं इस अखंड साम्राज्य का चक्रवर्ती सम्राट हूँ। ये सारी आकाशगंगाएँ, उनके नक्षत्र, और उनके ग्रह/उपग्रह, -- मैं स्वयं हूँ। इस सारी सृष्टि को घूर घूर कर बहुत अच्छी तरह से देख लिया है। पूरी सृष्टि में मेरे से अन्य कोई नहीं है। पूरी सृष्टि ही यह "मैं" बन गई है।
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इन सारी भौतिक, प्राणिक, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय सृष्टियों के सारे जड़-चेतन, सारे प्राणी, मेरे ही भाग हैं। मैं अनन्य हूँ। मेरा अनंत विस्तार ही मेरे साम्राज्य का जीवन है, और सीमितता मृत्यु है। अब मैं अपने आसन से लाखों किलोमीटर ऊपर उठ कर अंतरिक्ष के मध्य में पद्मासन लगाए बैठा हूँ। जिस पृथ्वी लोक से मैं आया था, वह पृथ्वी लोक तो कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा है। अपने आनंद के लिए मैं लाखों किलोमीटर आगे-पीछे, दायें-बाएं, अपनी स्वतंत्र इच्छा से घूम रहा हूँ। कोई बाधा मेरे समक्ष नहीं है।
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अनंतता में स्थिति परमानन्द है। अब मैं अनंतता से भी परे, स्वयं परमशिव होकर, परमशिव का ध्यान कर रहा हूँ। मैं ही विष्णु हूँ, मैं ही नारायण हूँ। स्वयं का ध्यान स्वयं कर रहा हूँ। कहीं कोई पृथकता नहीं है। गुरु भी मैं हूँ, और शिष्य भी मैं हूँ। स्वयं ही स्वयं का मार्गदर्शन कर रहा हूँ। मैं यह भौतिक देह नहीं, परमात्मा की पूर्णता हूँ। मेरे आराध्य और मैं एक हैं, वे ही यह मैं बन गए हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ अप्रेल २०२३
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