Tuesday, 12 May 2020

मन कई बार अशांत क्यों हो जाता है? ....

"निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा||"
कई बार मन इतना अधिक शांत हो आता है कि किसी भी तरह की शब्द-रचना संभव नहीं होती| यह स्थिति बड़ी आदर्श और शान्तिदायक होती है क्योंकि तब हम परमात्मा के समीप होते हैं| यही स्थिति सदा बनी रहे तो आदर्श है| इस स्थिति में इस भौतिक देह का बोध अति अति अल्प होकर नगण्य हो जाता है, और परमात्मा की सर्वव्यापकता के साथ चेतना जुड़ जाती है| यह शरीर ही नहीं, इसके साथ-साथ हमारे मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भी परमात्मा को पाने के साधन ही हैं| इन का सदुपयोग होना चाहिए, अन्यथा ये हमें नर्क-कुंड की अग्नि में गिरा देते हैं|
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प्राण-तत्व जितना चंचल होता है, मन उतना ही अशांत होता है| प्राण-तत्व की चंचलता जितनी कम होती जाती है हम परमात्मा के उतना ही समीप होते हैं| ईश्वर की परम कृपा से ही प्राण तत्व, आकाश तत्व, और बीज मंत्र चैतन्य होकर हमें अनुभूत होते हैं| ईश्वर की कृपा भी तभी होती है जब हमारे में 'निष्कपटता', 'अकुटिलता', 'निष्ठा', 'परमप्रेम' और "अभीप्सा" होती है| अन्यथा हम परमात्मा के मार्ग के पात्र नहीं हैं| जिनके हृदय में परमात्मा के प्रति कूट कूट कर प्रेम भरा पड़ा है, मैं उनके साथ एक हूँ| अन्य सभी को पूर्ण हृदय से दूर से ही नमस्कार!
"बंदउँ संत असज्जन चरना| दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना||
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं| मिलत एक दुख दारुन देहीं||
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ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
९ मई २०२०

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