Tuesday, 12 May 2020

एक दिव्य अनुभूति .....

एक दिव्य अनुभूति .....

मनुष्य में जैसी बुद्धि होती है वह वैसे ही कर्म करता है| मुझ अकिंचन में भी कोई करामात नहीं है, सामान्य से भी कम ही बुद्धि है और अनेक कमियाँ हैं| मेरी पीड़ा यह है कि अब मेरी ऊर्जा हर ओर से तीब्र गति से क्षीण होती जा रही है| यह शरीर महाराज भी वृद्ध और बेकार हो गया है| इसके हृदय में छिपा अंधकार, और अवचेतन मन में भरा तमोगुण, अपना प्रभाव उग्र रूप से दिखाने लगा है| किसी के भी उपदेश अब अच्छे नहीं लगते| कोई मुझे उपदेश देता है तो ऐसे लगता है जैसे कोई भैंस के आगे बीन बजा रहा है| हृदय बहुत व्याकुल और आर-पार की लड़ाई लड़ना चाहता था|
अब और क्या करता? विवश होकर अपने इष्टदेव और गुरु महाराज का ध्यान किया और पूर्ण हृदय से प्रार्थना की| ध्यान करते करते चेतना एक भाव-समाधि में चली गई| धीरे-धीरे भावजगत में ऐसा लगा कि बालरूप में स्वयं भगवान मेरे समक्ष खड़े-खड़े मुस्करा रहे हैं| पता नहीं क्यों मुझे बहुत बुरा लगा और उन्हें डांट कर भगा दिया| कई ऐसे शब्द भी बोल दिये जो नहीं बोलने चाहियें थे| भगवान ने कोई बुरा नहीं माना और मुस्कराते हुए चले गए| पर घोर आश्चर्य! वे कहीं गए नहीं, देखा, सामने ही एक ऊंचे आसन पर उसी बालरूप में पद्मासन लगाए ध्यानस्थ हैं| उनका अप्रतिम सौंदर्य इतना मनमोहक और आकर्षक कि कोई सुध-बुध नहीं रही| कोई शिकायत या असंतोष अब नहीं रहा| हृदय के सारे भाव शांत होकर लुप्त हो गए| मन इतना शांत हो गया कि शब्द-रचना ही असंभव हो गई| अंत में एक ही बात इस अति-अति अल्प और अति सीमित बुद्धि से समझ में आई जब उनकी एक अंतिम मुस्कान के साथ वह दृश्य विसर्जित हो गया| उनकी मुस्कान का अर्थ था कि तुम्हें अब और कुछ भी नहीं करना है, जो करना है वह मैं ही करूंगा, तुम सिर्फ मेरी ओर सदा निहारते रहो, मेरी छवि सदा अपने समक्ष रखो, अन्य कुछ भी नहीं| वह भाव-समाधि भी समाप्त हो गई और आँखों में प्रेमाश्रुओं के अतिरिक्त सब कुछ सामान्य हो गया जैसे कुछ हुआ ही नहीं था| पर उनका स्पष्ट संदेश मिल गया .....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||"
अर्थात् जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं दूर नहीं होता और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता||
भगवान वासुदेव (जो सर्वत्र सम भाव से व्याप्त हैं) सब की आत्मा हैं, जो उन्हें सर्वत्र देखता है उसके लिए वे कभी अदृश्य नहीं होते|
ये पंक्तियाँ भी उन्हीं की प्रेरणा से लिखी जा रही हैं| मेरी कोई कामना नहीं है|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१० मई २०२०

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