Friday, 29 December 2017

अंत मति सो गति ....

अंत मति सो गति .....
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गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि अंतकाल में भ्रूमध्य में ओंकार का स्मरण करो, निज चेतना को कूटस्थ में रखो आदि| अनेक महात्मा कहते हैं मूर्धा में ओंकार का निरंतर जप करो| योगी लोग कहते हैं कि आज्ञाचक्र के प्रति सजग रहो और ब्रह्मरंध्र में ओंकार का ध्यानपूर्वक जप करो आदि| इन सब के पीछे कारण हैं|
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मनुष्य जब स्वभाविक रूप से देहत्याग करता है यानी मरता है, उस से पहिले ही यह तय हो जाता है कि उसे कहाँ किस देह में और कैसे जन्म लेना है| इस देह को छोड़ने से पहिले ही दूसरी देह की भूमिका बन जाती है| अंत समय में जैसी मति होती है वैसी ही गति होती है| इस देह में ग्यारह छिद्र हैं जिनसे जीवात्मा का मृत्यु के समय निकास होता है ..... दो आँख, दो कान, दो नाक, एक पायु, एक उपस्थ, एक नाभि, एक मुख और एक मूर्धा| यह मूर्धा वाला मार्ग अति सूक्ष्म है और पुण्यात्माओं के लिए ही है| नरकगामी जीव पायु यानि गुदामार्ग से बाहर निकलता है| कामुक व्यक्ति मुत्रेंद्रियों से निकलता है और निकृष्ट योनियों में जाता है| नाभि से निकलने वाला प्रेत बनता है| भोजन लोलूप व्यक्ति मुँह से निकलता है, गंध प्रेमी नाक से, संगीत प्रेमी कान से, और तपस्वी व्यक्ति आँख से निकलता है| अंत समय में जहाँ जिसकी चेतना है वह उसी मार्ग से निकलता है और सब की अपनी अपनी गतियाँ हैं|
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जो ब्राह्मण संकल्प कर के और दक्षिणा लेकर भी यज्ञादि अनुष्ठान विधिपूर्वक नहीं करते/कराते वे ब्रह्मराक्षस बनते हैं| मद्य, मांस और परस्त्री का भोग करने वाला ब्राह्मण ब्रह्मपिशाच बनता है| इस तरह की कर्मों के अनुसार अनेक गतियाँ हैं| कर्मों का फल सभी को मिलता है, कोई इससे बच नहीं सकता|
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सबसे बुद्धिमानी का कार्य है परमात्मा से परम प्रेम, निरंतर स्मरण का अभ्यास और ध्यान | सभी को शुभ कामनाएँ | ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२७ दिसंबर २०१७

1 comment:

  1. प्रेरक एवं जीवन दिशा प्रदान करने बाला । शत - शत नमन जी ।
    धन्यवाद

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