स्वधर्म ---
हम शाश्वत आत्मा हैं, इसलिए परमात्मा को पाने की अभीप्सा, उनसे परमप्रेम, उनकी उपासना, निज जीवन में उनकी अभिव्यक्ति और सदाचरण -- ये हमारे स्वधर्म हैं। हमारी श्रद्धा और विश्वास एकमात्र परमात्मा पर ही होनी चाहिए। स्वधर्म में निधन होना ही श्रेष्ठ है। स्वधर्म पर अडिग रहें। भगवान कहते हैं --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् - सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥
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भगवान कहते हैं कि थोड़ा-बहुत धर्म का आचरण भी महाभय से हमारी रक्षा करता है --
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् - इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
४ जुलाई २०२१
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