Wednesday, 6 May 2020

अब भगवान को मुझ से भी बहुत बड़ी शिकायत है.....

अब भगवान को मुझ से भी बहुत बड़ी शिकायत है.....
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करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम् |
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ||
वटपत्र के मध्य सोये हुए, अपने हस्तकमल द्वारा पदकमल को मुखकमल में प्रवेश कराते हुए, बालक श्रीकृष्ण को मन से स्मरण करता हूँ ||
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मैं भगवान से अनगिनत शिकायतें करता रहता हूँ, पर उनकी कभी नहीं सुनता| भगवान चाहे जितने भी सर्वशक्तिमान हों, मेरे लिए तो वे एक बालक की तरह बड़े भोले-भाले और सीधे-साधे हैं; पर हैं बड़े हठी और दृढ़ निश्चयी| बार-बार उन्हें मनाना पड़ता है, यदि नहीं भी मनाता तो भी मान जाते हैं; बड़े भोले हैं| मुझ से तो बहुत अधिक प्रेम रखते हैं| उनको मैं तो भूल जाता हूँ, पर वे कभी नहीं भूलते| दुःख-सुख में स्वयं ही मुझे अपनी याद दिला देते हैं| आज उन्होनें किसी ना किसी तरह शिकायत करते हुए कह ही दिया कि बाबा तुम हमें प्रेम नहीं करते| अब क्या उत्तर दें? कुछ समझ में नहीं आया| हमने कह दिया कि यह हमारे वश का नहीं है, तुम ही हमें प्रेम करते रहो| पर अपने बाल-स्वभाव में उन्होंने स्पष्ट कह ही दिया कि बाबा हमें तुम्हारा शत-प्रतिशत प्रेम चाहिए, ९९.९९ प्रतिशत भी नहीं चलेगा, पूरा ही प्रेम देना होगा| फिर नाराज होकर चले गए|
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अब मनाना तो उन्हें पड़ेगा ही| हृदय-सागर की विशाल जलराशि में तैरते हुए एक वटवृक्ष के छोटे से पत्ते पर लेटे हुए सूक्ष्म बालक के रूप में भी वे ही थे और जिसमें सारी सृष्टि समाई हुई है, वह विराट अनंतता और परमशिव भी वे ही थे| वे स्वयं ही स्वयं को प्रेम करें| मेरे वश का तो कुछ भी नहीं है| वास्तव में "मैं" तो है ही नहीं, वे ही सर्वस्व हैं, और वे ही यह "मैं" बन गए हैं| यह "मैं' एक निमित्त मात्र है, जिसका बोध ही माया का आवरण है|
ॐ तत्सत् ||
२० मार्च २०२०

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