कर्म, भक्ति और ज्ञान में यथार्थतः कोई भेद नहीं है .....
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ज्ञान, भक्ति और कर्म में मुझे कहीं कोई भेद नहीं दिखाई देता है| इन तीनों के स्पंदन की आवृतियाँ थोड़ी-बहुत पृथक-पृथक हो सकती हैं, पर मूल ऊर्जा एक ही है| इनमें कोई भेद नहीं है| इसका पता तब चलता है जब हरिःकृपा से गीता में बताए हुए 'समभाव' की अति अल्प मात्रा में भी अनुभूति होती है| यह समभाव ही हमें आत्म-तत्व का बोध कराकर उसमें अधिष्ठित करता है| यह समभाव ही गीता का योग है| भगवान कहते हैं ....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||"
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हम स्वयं में भगवान के प्रति परमप्रेम (भक्ति) जागृत कर, भगवान को कर्ता बना कर, भगवान के लिए ही कर्म करेंगे तो हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) पवित्र होता है| अन्तःकरण के पवित्र होने पर ही ज्ञान की सिद्धी होती है| तभी समभाव में अधिष्ठान होता है| उस समय सिद्धी और असिद्धि में कोई भेद नहीं रहता| इस समत्व में स्थिति ही गीता का योग है| जैसा मुझे समझ में आया वैसा ही लिखा जा रहा है| ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
३१ मार्च २०२०
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ज्ञान, भक्ति और कर्म में मुझे कहीं कोई भेद नहीं दिखाई देता है| इन तीनों के स्पंदन की आवृतियाँ थोड़ी-बहुत पृथक-पृथक हो सकती हैं, पर मूल ऊर्जा एक ही है| इनमें कोई भेद नहीं है| इसका पता तब चलता है जब हरिःकृपा से गीता में बताए हुए 'समभाव' की अति अल्प मात्रा में भी अनुभूति होती है| यह समभाव ही हमें आत्म-तत्व का बोध कराकर उसमें अधिष्ठित करता है| यह समभाव ही गीता का योग है| भगवान कहते हैं ....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||"
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हम स्वयं में भगवान के प्रति परमप्रेम (भक्ति) जागृत कर, भगवान को कर्ता बना कर, भगवान के लिए ही कर्म करेंगे तो हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) पवित्र होता है| अन्तःकरण के पवित्र होने पर ही ज्ञान की सिद्धी होती है| तभी समभाव में अधिष्ठान होता है| उस समय सिद्धी और असिद्धि में कोई भेद नहीं रहता| इस समत्व में स्थिति ही गीता का योग है| जैसा मुझे समझ में आया वैसा ही लिखा जा रहा है| ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
३१ मार्च २०२०
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