लोहिड़ी / मकर संक्रांति / पोंगल के शुभ अवसर पर चलो हम सब तीर्थराज त्रिवेणी संगम में स्नान करते हैं ताकि हमारा जीवन सदा उत्तरायण, धर्मपरायण व राममय रहे|
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इड़ा भगवती गंगा है, पिंगला यमुना नदी है और उनके मध्य में सुषुम्ना सरस्वती है| इस त्रिवेणी का संगम तीर्थराज है जहां स्नान करने से सर्व पापों से मुक्ति मिलती है| वह तीर्थराज त्रिवेणी प्रयाग का संगम कहाँ है? वह स्थान ... तीर्थराज त्रिवेणी का संगम हमारे भ्रूमध्य में है| अपनी चेतना को भ्रूमध्य में और उससे ऊपर रखना ही त्रिवेणी संगम में स्नान करना है| आने-जाने वाली हर सांस के प्रति सजग रहें| चेतना का निरंतर विकास करते रहें|
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हम अनंत, सर्वव्यापक, असम्बद्ध, अलिप्त व शाश्वत हैं| हं सः/सो हं| ॐ || हमारे हृदय की हर धड़कन, हर आती जाती साँस, ..... परमात्मा की कृपा है| हमारा अस्तित्व ही परमात्मा है| हम जीवित हैं सिर्फ परमात्मा के लिए| सचेतन रूप से परमात्मा से अन्य कुछ भी हमें नहीं चाहिए| माया के एक पतले से आवरण ने हमें परमात्मा से दूर कर रखा है| उस आवरण के हटते ही हम परमात्मा के साथ एक हैं| उस आवरण से मुक्त होंने का प्रयास ही साधना है| यह साधना हमें स्वयं को ही करनी पड़ेगी, कोई दूसरा इसे नहीं कर सकता| न तो इसका फल कोई साधू-संत हमें दे सकता है और न अन्य किसी का आशीर्वाद| अपने स्वयं का प्रयास ही हमें मुक्त कर सकता है| अतः दूसरों के पीछे मत भागो| अपने समक्ष एक जलाशय है जिसे हमें पार करना है, तो तैर कर पार तो स्वयं को ही करना होगा, कोई दूसरा यह कार्य नहीं कर सकता| किनारे बैठकर तैरूँगा तैरूँगा बोलने से कोई पार नहीं जा सकता| उसमें कूद कर तैरते हुए पार तो स्वयं को ही जाना है|
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जब भी भगवान की याद आये वही सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है| उसी क्षण स्वयं प्रेममय बन जाओ, यही सर्वश्रेष्ठ साधना है| अपनी व्यक्तिगत साधना/उपासना में एक नए संकल्प और नई ऊर्जा के साथ गहनता लायें .....
> रात्रि को सोने से पूर्व भगवान का ध्यान कर के निश्चिन्त होकर जगन्माता की गोद में सो जाएँ| > दिन का प्रारम्भ परमात्मा के प्रेम रूप पर ध्यान से करें| >पूरे दिन परमात्मा की स्मृति रखें| यदि भूल जाएँ तो याद आते ही पुनश्चः स्मरण करते रहें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०२०
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इड़ा भगवती गंगा है, पिंगला यमुना नदी है और उनके मध्य में सुषुम्ना सरस्वती है| इस त्रिवेणी का संगम तीर्थराज है जहां स्नान करने से सर्व पापों से मुक्ति मिलती है| वह तीर्थराज त्रिवेणी प्रयाग का संगम कहाँ है? वह स्थान ... तीर्थराज त्रिवेणी का संगम हमारे भ्रूमध्य में है| अपनी चेतना को भ्रूमध्य में और उससे ऊपर रखना ही त्रिवेणी संगम में स्नान करना है| आने-जाने वाली हर सांस के प्रति सजग रहें| चेतना का निरंतर विकास करते रहें|
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हम अनंत, सर्वव्यापक, असम्बद्ध, अलिप्त व शाश्वत हैं| हं सः/सो हं| ॐ || हमारे हृदय की हर धड़कन, हर आती जाती साँस, ..... परमात्मा की कृपा है| हमारा अस्तित्व ही परमात्मा है| हम जीवित हैं सिर्फ परमात्मा के लिए| सचेतन रूप से परमात्मा से अन्य कुछ भी हमें नहीं चाहिए| माया के एक पतले से आवरण ने हमें परमात्मा से दूर कर रखा है| उस आवरण के हटते ही हम परमात्मा के साथ एक हैं| उस आवरण से मुक्त होंने का प्रयास ही साधना है| यह साधना हमें स्वयं को ही करनी पड़ेगी, कोई दूसरा इसे नहीं कर सकता| न तो इसका फल कोई साधू-संत हमें दे सकता है और न अन्य किसी का आशीर्वाद| अपने स्वयं का प्रयास ही हमें मुक्त कर सकता है| अतः दूसरों के पीछे मत भागो| अपने समक्ष एक जलाशय है जिसे हमें पार करना है, तो तैर कर पार तो स्वयं को ही करना होगा, कोई दूसरा यह कार्य नहीं कर सकता| किनारे बैठकर तैरूँगा तैरूँगा बोलने से कोई पार नहीं जा सकता| उसमें कूद कर तैरते हुए पार तो स्वयं को ही जाना है|
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जब भी भगवान की याद आये वही सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है| उसी क्षण स्वयं प्रेममय बन जाओ, यही सर्वश्रेष्ठ साधना है| अपनी व्यक्तिगत साधना/उपासना में एक नए संकल्प और नई ऊर्जा के साथ गहनता लायें .....
> रात्रि को सोने से पूर्व भगवान का ध्यान कर के निश्चिन्त होकर जगन्माता की गोद में सो जाएँ| > दिन का प्रारम्भ परमात्मा के प्रेम रूप पर ध्यान से करें| >पूरे दिन परमात्मा की स्मृति रखें| यदि भूल जाएँ तो याद आते ही पुनश्चः स्मरण करते रहें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०२०
अभीप्सा, परमप्रेम और पूर्ण समर्पण ...... यही वेदान्त है, यही ज्ञान है, यही भक्ति है, और यही सनातन धर्म है| बाकी सब इन्हीं का विस्तार है|
ReplyDelete.
इसके सिवाय मुझे तो अन्य कुछ भी दृष्टिगत नहीं होता|
सर्वत्र भगवान वासुदेव हैं, वे ही श्रीराम हैं, वे ही परमशिव पारब्रह्म हैं, और वे ही सर्वस्व हैं|
कहीं कोई पृथकता नहीं है| अन्य कुछ है ही नहीं| ॐ ॐ ॐ ||
मकर संक्रांति की शुभ कामनाएँ .....
ReplyDeleteपतंग आसमान में उड़ता है और चाहता है कि मैं और ऊँचा और और अधिक ऊँचा सदा उड़ता ही रहूँ, कभी लौट कर बापस न आऊँ| ऐसी ही हमारी चेतना और आकांक्षाएँ हैं जो निरंतर उत्थान ही उत्थान चाहती हैं| पर कर्मों की डोर खींच कर हमें बापस ले आती है| उन डोर रूपी पाशों से हम मुक्त हों| जब तक इन पाशों से बंधे हैं, हम पशु ही हैं| ईश्वरीय चेतना ही हमें इन पाशों से मुक्त कर सकती हैं|
जिन विषयों को समझने की बुद्धि भगवान ने हमें नहीं दी है, उन में उलझे रहने का कोई औचित्य नहीं है| जिन विषयों की समझ हो उन्हीं में प्रवेश करना चाहिए| जिस बात की समझ और ज्ञान हमें नहीं है, उस के ऊपर किसी भी तरह की कोई टीका-टिप्पणी भी नहीं करनी चाहिए|
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