Saturday, 6 July 2019

गीता के अनुसार क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म .....

गीता के अनुसार क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म .....
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्| दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्||१८:४३||"
अर्थात् शौर्य, तेज, धृति, दाक्ष्य (दक्षता), युद्ध से पलायन न करना, दान और ईश्वर भाव (स्वामी भाव) ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं|
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क्षत्रिय को क्षत्रिय इसलिये कहते हैं .... "क्षतात् त्रायत इति" कहीं भी किसी की क्षति हो रही तो वह उसे बचाता है| क्षत्रिय की स्वाभाविक प्रवृत्ति सदा दूसरे की रक्षा के लिये ही है|
"शौर्य" का अर्थ है .....चाहे जितना शक्तिशाली विरोधी हो, बिना घबराये उसके साथ युद्ध करने की तत्परता "शूरवीरता" है, केवल लड़ाई करना मात्र नहीं| जिसमें शूरवीरता नहीं है, वह क्षत्रिय नहीं हो सकता|
"तेज" अर्थात् प्रगल्भता, किसी भी परिस्थिति में दूसरे से पराभूत नहीं होना, यानि दूसरे से दबना नहीं|
"धृति" यानी धैर्य, यानि कभी भी उदास नहीं होना|
"दाक्ष्यम्" यानि दक्षता|
"युद्धे चाप्यपलायनं" .... युद्ध से कभी भागना नहीं|
"दानम्," यानि दान देने में मुक्तहस्तता|
"ईश्वरभावः" ..... जो अधर्म का आचरण करते हैं उनको दण्ड देते समय अपनी प्रभुता को प्रकट करना, अर्थात् दण्ड देने में कभी पीछे नहीं हटना| जिनके ऊपर शासन करना है उन्हें अपराध करने पर दण्ड देना ईश्वरभाव है| जैसे भगवान पापियों को पाप का दण्ड देते हैं, पुण्यात्मा को पुण्य का पुरस्कार देते हैं इसी प्रकार ईश्वर का भाव होने के कारण जो क्षत्रिय होता है वह अधर्माचरण करने वाले को दण्ड देता ही है|
ये क्षत्रिय जाति के स्वभावज कर्म हैं|
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जून २०१९

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