'योग' क्या है ? .....
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भगवान श्रीकृष्ण के मुख से निकली हुई पूरी भगवद्गीता ही "योग" का सर्वश्रेष्ठ प्रामाणिक ग्रन्थ है| उनसे पूर्व 'कृष्ण यजुर्वेद' के श्वेताश्वतर उपनिषद में योग साधनाओं का विस्तृत वर्णन है| उपनिषद समाधि भाषा में हैं जिन्हें कोई सिद्ध ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य ही समझा सकता है| अतः सामान्य जन के लिए भगवद्गीता ही श्रेष्ठ है| गीता में भगवान कहते हैं .....
"तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः| कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन||६:४६||"
भावार्थ :--- क्योंकि योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है और (केवल शास्त्र के) ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है तथा कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है इसलिए हे अर्जुन तुम योगी बनो||
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यहाँ यह जानना आवश्यक है कि योग क्या है| अधिकाँश लोग हठयोग को ही योग समझते हैं, पर गीता के अनुसार इसका क्या अर्थ है, यह हमें समझना चाहिए| गीता में भगवान कहते हैं....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||"
अर्थात् हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो| यह समभाव ही योग कहलाता है||
गीता के अनुसार 'समत्व' ही योग है| समत्व में अधिष्ठित होना ही समाधि है|
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हमें जीवन का हर कार्य केवल ईश्वर के लिये करना चाहिए| यह भावना भी नहीं होनी चाहिए कि "ईश्वर मुझपर प्रसन्न हों"| इस आशारूप आसक्ति को भी छोड़ कर, फलतृष्णारहित कर्म किये जाने पर अन्तःकरण की शुद्धि से उत्पन्न होने वाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है, और उससे विपरीत (ज्ञानप्राप्ति का न होना) असिद्धि है| ऐसी सिद्धि और असिद्धि में भी सम होकर, अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म करना चाहिए| यही जो सिद्धि और असिद्धि में समत्व है इसीको योग कहते हैं।
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योगसुत्रों में ऋषि पतंजलि कहते हैं .... "योगश्चित्त वृत्ति निरोधः"|| उन्होंने चित्तवृत्तियों के निरोध को योग बताया है| चित्त तो अंतःकरण का ही एक भाग है| चित्त क्या है, इसे समझना पड़ेगा| चित्त स्वयं को दो रूपों .... वासनाओं व श्वाश-प्रश्वाश के रूप में व्यक्त करता है| वासनाएँ तो अति सूक्ष्म हैं जो पकड़ में नहीं आतीं| अतः आरम्भ में गुरु-प्रदत्त बीज मन्त्रों के साथ श्वाश पर ध्यान किया जाता है| इससे मेरुदंड में प्राण शक्ति का आभास होता है जिसकी चंचलता शनैः शनैः शांत होने से वासनाओं पर नियंत्रण होता है| सूक्ष्म शक्तियों का जब जागरण होता है तब आचार-विचार में पवित्रता बड़ी आवश्यक है, अन्यथा लाभ की अपेक्षा हानि होती है| इसीलिये यम और नियम योग साधना के भाग हैं| इस मार्ग पर साधक गुरुकृपा से अग्रसर होता ही रहता है| पर पर चित्तवृत्ति निरोध वाला अष्टांग योग एक साधन ही है, साध्य नहीं| साध्य तो परमशिवभाव यानि परमशिव हैं|
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तंत्र शास्त्रों के अनुसार योग साधना का उद्देश्य है --- परम शिवभाव को प्राप्त करना ..... जिसकी सिद्धि अपनी सूक्ष्म देह में अवस्थित कुण्डलिनी महाशक्ति यानि घनीभूत प्राण-चेतना को जागृत कर उसको परम शिव से एकाकार करना है|
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योगी वही हो सकता जो स्वभाव से ही योगी हो| सिद्ध योगी गुरु की कृपा के बिना कभी कोई योगी नहीं बन सकता है| वास्तविक आध्यात्मिक जीवन को पाने के लिए हरेक साधक को हर क्षण गुरु प्रदत्त साधना के सहारे जीना आवश्यक है| जब एक बार स्वभाव में योग साधना बस जाये तब गुरुशक्ति ही साधक को साधना के चरम उत्कर्ष पर पहुँच देती है| इसके लिए आवश्यक है गुरु पर अटल विश्वाश और पूर्ण आत्मसमर्पण| सबसे बड़ी चीज है "भगवान से परमप्रेम यानि भक्ति"| भगवान की कृपा हो जाए तो और कुछ भी नहीं चाहिए|
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"वसुदेव सुतं देवं, कंस चाणूर मर्दनं| देवकी परमानन्दं, कृष्णं वन्दे जगत्गुरुम्||"
"वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात् | पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् || पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात् | कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ जून २०१९
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भगवान श्रीकृष्ण के मुख से निकली हुई पूरी भगवद्गीता ही "योग" का सर्वश्रेष्ठ प्रामाणिक ग्रन्थ है| उनसे पूर्व 'कृष्ण यजुर्वेद' के श्वेताश्वतर उपनिषद में योग साधनाओं का विस्तृत वर्णन है| उपनिषद समाधि भाषा में हैं जिन्हें कोई सिद्ध ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य ही समझा सकता है| अतः सामान्य जन के लिए भगवद्गीता ही श्रेष्ठ है| गीता में भगवान कहते हैं .....
"तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः| कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन||६:४६||"
भावार्थ :--- क्योंकि योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है और (केवल शास्त्र के) ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है तथा कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है इसलिए हे अर्जुन तुम योगी बनो||
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यहाँ यह जानना आवश्यक है कि योग क्या है| अधिकाँश लोग हठयोग को ही योग समझते हैं, पर गीता के अनुसार इसका क्या अर्थ है, यह हमें समझना चाहिए| गीता में भगवान कहते हैं....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||"
अर्थात् हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो| यह समभाव ही योग कहलाता है||
गीता के अनुसार 'समत्व' ही योग है| समत्व में अधिष्ठित होना ही समाधि है|
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हमें जीवन का हर कार्य केवल ईश्वर के लिये करना चाहिए| यह भावना भी नहीं होनी चाहिए कि "ईश्वर मुझपर प्रसन्न हों"| इस आशारूप आसक्ति को भी छोड़ कर, फलतृष्णारहित कर्म किये जाने पर अन्तःकरण की शुद्धि से उत्पन्न होने वाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है, और उससे विपरीत (ज्ञानप्राप्ति का न होना) असिद्धि है| ऐसी सिद्धि और असिद्धि में भी सम होकर, अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म करना चाहिए| यही जो सिद्धि और असिद्धि में समत्व है इसीको योग कहते हैं।
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योगसुत्रों में ऋषि पतंजलि कहते हैं .... "योगश्चित्त वृत्ति निरोधः"|| उन्होंने चित्तवृत्तियों के निरोध को योग बताया है| चित्त तो अंतःकरण का ही एक भाग है| चित्त क्या है, इसे समझना पड़ेगा| चित्त स्वयं को दो रूपों .... वासनाओं व श्वाश-प्रश्वाश के रूप में व्यक्त करता है| वासनाएँ तो अति सूक्ष्म हैं जो पकड़ में नहीं आतीं| अतः आरम्भ में गुरु-प्रदत्त बीज मन्त्रों के साथ श्वाश पर ध्यान किया जाता है| इससे मेरुदंड में प्राण शक्ति का आभास होता है जिसकी चंचलता शनैः शनैः शांत होने से वासनाओं पर नियंत्रण होता है| सूक्ष्म शक्तियों का जब जागरण होता है तब आचार-विचार में पवित्रता बड़ी आवश्यक है, अन्यथा लाभ की अपेक्षा हानि होती है| इसीलिये यम और नियम योग साधना के भाग हैं| इस मार्ग पर साधक गुरुकृपा से अग्रसर होता ही रहता है| पर पर चित्तवृत्ति निरोध वाला अष्टांग योग एक साधन ही है, साध्य नहीं| साध्य तो परमशिवभाव यानि परमशिव हैं|
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तंत्र शास्त्रों के अनुसार योग साधना का उद्देश्य है --- परम शिवभाव को प्राप्त करना ..... जिसकी सिद्धि अपनी सूक्ष्म देह में अवस्थित कुण्डलिनी महाशक्ति यानि घनीभूत प्राण-चेतना को जागृत कर उसको परम शिव से एकाकार करना है|
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योगी वही हो सकता जो स्वभाव से ही योगी हो| सिद्ध योगी गुरु की कृपा के बिना कभी कोई योगी नहीं बन सकता है| वास्तविक आध्यात्मिक जीवन को पाने के लिए हरेक साधक को हर क्षण गुरु प्रदत्त साधना के सहारे जीना आवश्यक है| जब एक बार स्वभाव में योग साधना बस जाये तब गुरुशक्ति ही साधक को साधना के चरम उत्कर्ष पर पहुँच देती है| इसके लिए आवश्यक है गुरु पर अटल विश्वाश और पूर्ण आत्मसमर्पण| सबसे बड़ी चीज है "भगवान से परमप्रेम यानि भक्ति"| भगवान की कृपा हो जाए तो और कुछ भी नहीं चाहिए|
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"वसुदेव सुतं देवं, कंस चाणूर मर्दनं| देवकी परमानन्दं, कृष्णं वन्दे जगत्गुरुम्||"
"वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात् | पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् || पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात् | कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ जून २०१९
अंशुमाली मार्तंड भुवन-भास्कर अपना प्रकाश बिना शर्त हम सब को देते हैं, वैसे ही हम अपना सम्पूर्ण प्रेम पूरी समष्टि को दें.
ReplyDeleteफिर पूरी समष्टि ही हमसे प्रेम करेगी.
हमारा परमप्रेम ही परमात्मा की अभिव्यक्ति है.