जिसकी चेतना परमात्मा में है, जिसकी कोई आसक्ति नहीं है, जो विगतस्पृह है, , ...जिसमें कर्ताभाव नहीं है... ऐसा व्यक्ति यदि पूरे संसार को भी नष्ट कर
दे यानि मार दे, तो भी उसे कोई पाप नहीं लगता .....
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(१) गीता में भगवान कहते हैं .....
"असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः| नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति||१८:४९||"
जो सर्वत्र असक्तबुद्धि है, जो जितात्मा है (जिसका आत्मा यानी अन्तःकरण जीता हुआ है), जो स्पृहारहित है सब कर्मोंको मनसे छोड़कर न करता हुआ और न करवाता हुआ रहता है|
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(२) भगवान कहते हैं ....
"ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः| लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा||५:१०||"
जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता||
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(३) भगवान कहते हैं ....
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते||18.17||"
अर्थात् जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है||
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ जून २०१९
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(१) गीता में भगवान कहते हैं .....
"असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः| नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति||१८:४९||"
जो सर्वत्र असक्तबुद्धि है, जो जितात्मा है (जिसका आत्मा यानी अन्तःकरण जीता हुआ है), जो स्पृहारहित है सब कर्मोंको मनसे छोड़कर न करता हुआ और न करवाता हुआ रहता है|
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(२) भगवान कहते हैं ....
"ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः| लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा||५:१०||"
जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता||
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(३) भगवान कहते हैं ....
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते||18.17||"
अर्थात् जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है||
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ जून २०१९
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