हमारा पृथक अस्तित्व उस परम प्रेम और परम सत्य को व्यक्त करने के लिए ही है .....
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धरती ने ऐसा क्या तप किया है ? आकाश ने कौन सा योग किया है ? सूर्य-चन्द्रमा ने क्या कोई यज्ञ किया है ? सूर्य, चन्द्र और तारों को चमकने के लिए क्या साधना करनी पडती है ? पुष्प को महकने के लिए कौन सी तपस्या करनी पडती है ? महासागर को गीला होने के लिए कौन सा तप करना पड़ता है ?
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शांत होकर प्रभु को अपने भीतर बहने दो | उसकी उपस्थिति के सूर्य को अपने भीतर चमकने दो| जब उसकी उपस्थिति के प्रकाश से ह्रदय पुष्प की भक्ति रूपी पंखुड़ियाँ खिलेंगी तो उसकी महक हमारे ह्रदय से सर्वत्र फ़ैल जायेगी |
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जब हम कभी एक अति उत्तुंग पर्वत शिखर से नीचे की गहराई में झाँकते हैं तो वह डरावनी गहराई भी हमारे में झाँकती है | ऐसे ही जब हम नीचे से अति उच्च पर्वत को घूरते हैं तो वह पर्वत भी हमें घूरता है | जिसकी आँखों में हम देखते हैं, वे आँखें भी हमें देखती हैं | जिससे भी हम प्रेम या घृणा करते हैं, उससे वैसी ही प्रतिक्रिया कई गुणा होकर हमें ही प्राप्त होती है |
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जब हम प्रभु को प्रेम करते हैं तो वह प्रेम अनंत गुणा होकर हमें ही प्राप्त होता है | वह प्रेम हम स्वयं ही है | प्रभु में हम समर्पण करते हैं तो प्रभु भी हम में समर्पण करते हैं | जब हम शिवत्व में विलीन हो जाते हैं तो वह शिवत्व भी हम में ही विलीन हो जाता है और हम स्वयं साक्षात् शिव बन जाते हैं |
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जहाँ न कोई क्रिया-प्रतिक्रिया है, न कोई मिलना-बिछुड़ना है, कोई अपेक्षा या माँग नहीं है, जो बैखरी मध्यमा पश्यन्ति और परा से भी परे है, वह असीमता, अनंतता व सम्पूर्णता हम स्वयं ही हैं |
हमारा पृथक अस्तित्व उस परम प्रेम और परम सत्य को व्यक्त करने के लिए ही है |
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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धरती ने ऐसा क्या तप किया है ? आकाश ने कौन सा योग किया है ? सूर्य-चन्द्रमा ने क्या कोई यज्ञ किया है ? सूर्य, चन्द्र और तारों को चमकने के लिए क्या साधना करनी पडती है ? पुष्प को महकने के लिए कौन सी तपस्या करनी पडती है ? महासागर को गीला होने के लिए कौन सा तप करना पड़ता है ?
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शांत होकर प्रभु को अपने भीतर बहने दो | उसकी उपस्थिति के सूर्य को अपने भीतर चमकने दो| जब उसकी उपस्थिति के प्रकाश से ह्रदय पुष्प की भक्ति रूपी पंखुड़ियाँ खिलेंगी तो उसकी महक हमारे ह्रदय से सर्वत्र फ़ैल जायेगी |
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जब हम कभी एक अति उत्तुंग पर्वत शिखर से नीचे की गहराई में झाँकते हैं तो वह डरावनी गहराई भी हमारे में झाँकती है | ऐसे ही जब हम नीचे से अति उच्च पर्वत को घूरते हैं तो वह पर्वत भी हमें घूरता है | जिसकी आँखों में हम देखते हैं, वे आँखें भी हमें देखती हैं | जिससे भी हम प्रेम या घृणा करते हैं, उससे वैसी ही प्रतिक्रिया कई गुणा होकर हमें ही प्राप्त होती है |
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जब हम प्रभु को प्रेम करते हैं तो वह प्रेम अनंत गुणा होकर हमें ही प्राप्त होता है | वह प्रेम हम स्वयं ही है | प्रभु में हम समर्पण करते हैं तो प्रभु भी हम में समर्पण करते हैं | जब हम शिवत्व में विलीन हो जाते हैं तो वह शिवत्व भी हम में ही विलीन हो जाता है और हम स्वयं साक्षात् शिव बन जाते हैं |
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जहाँ न कोई क्रिया-प्रतिक्रिया है, न कोई मिलना-बिछुड़ना है, कोई अपेक्षा या माँग नहीं है, जो बैखरी मध्यमा पश्यन्ति और परा से भी परे है, वह असीमता, अनंतता व सम्पूर्णता हम स्वयं ही हैं |
हमारा पृथक अस्तित्व उस परम प्रेम और परम सत्य को व्यक्त करने के लिए ही है |
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
01 सितम्बर 2014
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